आयुर्वेद की दृष्टि में शरीर का बलवान होना ही यौन शक्ति का प्रमुख आधार होता है इसलिए जो पूरे शरीर के लिए लाभकारी है वह यौनशक्ति के लिए भी लाभकारी होता है. आयुर्वेद के सुश्रुत संहिता में कहा गया है की वात, पित्त और कफ - ये तीनों हो शरीर की उत्पत्ति के कारण हैं. ये सामान्य और अकुपित अवस्था में रह कर शरीर को धारण करने वाले होते हैं, जैसे तीन खम्बे शरीर को धारण किये हों.
उचित आहार-विहार करके वात-पित्त-कफ को सामान्य शांत अवस्था में रखने से शरीर स्वस्थ और बलवान बना रहता है जिससे पर्याप्त यौन शक्ति और सामर्थ्य भी बने रहते हैं. आयुर्वेद की चरक संहिता के अनुसार आरोग्य और इन्द्रियों पर विजय ये दो लाभ एक साथ प्राप्त हो जाते हैं. आयुर्वेद ने उचित आहार विहार को बहुत महत्त्व दिया है क्यूंकि हमारा स्वस्थ और बलवान रहना या न रहना आहार-विहार पर ही निर्भर रहता है.
आयुर्वेद के अनुसार संयमी पुरुष को अधिक स्त्री सहवास से बचना चाहिए क्यूंकि मैथुन कार्य की अधिकता से शूल, कास, ज्वर, श्वास, दुर्बलता, रक्ताल्पता , क्षय और आक्षेपक आदि व्याधियां उत्पन्न होती हैं. यहाँ एक बात स्पष्ट कर दें की आयुर्वेद ने यौन आचरण पर पूर्ण पाबंदी नहीं लगाई है क्यूंकि यह न तो संभव है न ही स्वाभाविक. आयुर्वेद ने केवल अति स्त्री सहवास की मनाही की है. आयुर्वेद के ग्रंथो में ऐसे कई सूत्र वर्णित हैं जो यौन संयम और नियमन तथा वीर्य के सदुपयोग एवं व्यर्थ नष्ट न करने के उपदेश देते हैं.
आधुनिक यौन दृष्टिकोण के अनुसार सहवास यानी यौन क्रिया से कोई हानि नहीं होती बल्कि लाभ होता है. इसके अनुसार यौन क्रिया जितना ज्यादा और मनमाफिक की जाए उतना हो लाभ करती है. "वीर्य" को सहायक यौन ग्रंथियों का स्त्राव भर मानने वाले कुछ आधुनिक यौन शास्त्रियों ने यौन क्रिया को व्यायाम के समतुल्य बताते हुए इसे एक नया नाम भी दे दिया है, यौन व्यायाम (Sexercise ) . यौन क्रिया को व्यायाम के समतुल्य रखना उचित नहीं है, क्यूंकि व्यायाम यौन क्रिया का एक हिस्सा होता है. आज हमारे देश में भी यौन सम्बन्धी आधुनिक विचारधारा का अनुसरण हो रहा है. सुखवादी और भोगी विचारधारा इस सन्देश को बढ़ा चढ़ा कर प्रसारित कर रही है की यौन क्रिया में अति से कोई हानि नहीं होती बल्कि स्वास्थ्य और खुशहाली जीवन में आते हैं. परिणाम यह है की आत्म-अनुशासन का स्थान भोगासक्ति ने ले लिया है. यह कोई दुर्घटना नहीं है की मनुष्य जाती विभिन्न प्रकार की जिन यौन तथा शारीरिक हास सम्बन्धी व्याधियों से ग्रस्त है वो पशुओं में नहीं पायी जाती है.
पूर्व के ज्ञानियों ने यौन क्रिया , ख़ास कर वीर्य स्खलन को हानिकारक बताते हुए संयमित यौन जीवन जीने का उपदेश दिया है. हमारे प्राचीन चिकित्सा विज्ञान "आयुर्वेद" के अनुसार मनुष्य की शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का आधार "त्रिदोष" (वात-पित्त-कफ ) होते हैं और यौनक्रिया में इन दोनों प्रकार की क्रियाओं का समावेश होता है जो इन तीनो दोषों के संतुलन को बिगाड़ता है. यौन सम्बन्धी शारीरिक क्रियाओं के पीछे "वात" की भूमिका रहती है, पित्त कामेच्छा को संचालित करता है और कफ यौनशक्ति का निर्धारण करता है. "त्रिदोष' को संतुलित या प्रभावित करने वाले तीन उपस्तम्भ होते हैं - आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य . "ब्रह्मचर्य" शब्द को समझना आसान नहीं होता तथा चूँकि इसका अक्सर गलत अर्थ निकला जाता है अतः हम 'यौन नियमन' (regulated sex ) शब्द का उपयोग कर रहे हैं. पहले उपस्तम्भ आहार की तरह यह भी महत्वपूर्ण होता है. "यौन नियमन" के महत्त्व को जानने समझने के लिए हमें यौन क्रिया के शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव और लाभ-हानि पर चर्चा करनी होगी जिसे हम "आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान" के आधार पर आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं.
जैसा की हमने पहले भी कहा है की यौनक्रिया स्वसंचालित तंत्रिका तंत्र से क्रियान्वित ही नहीं होती बल्कि इस तंत्र को प्रभावित भी करती है तथा इसका शारीरिक ऊर्जा और चयापचय पर भी प्रभाव पड़ता है अतः इसका संयमित होना आवश्यक होता है . एक स्वस्थ, सामान्य और उपयुक्त यौन क्रिया से उत्पन्न रासायनिक परिवर्तन शरीर को लाभ पहुंचते हैं जैसे इससे IgA (Immunoglobulin A ) एंटीबॉडीज़ की रक्त में वृद्धि होती है जो शरीर की रोगप्रतिरोधक शक्ति बढाती है. इससे मेलाटोनिन हार्मोन का स्तर बढ़ता है जो अच्छी नींद लाने वाला रसायन होता है.
उचित और संतुष्ट यौनक्रिया मस्तिष्कीय रसायनो तथा शारीरिक हार्मोन्स में परिवर्तन कर कई लाभ पहुंचती है. स्त्रियों में जहाँ अवसाद के लक्षणों में सुधर होता है वहीँ पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन हार्मोन की वृद्धि पेशियों और अस्थियों में पुनरोद्धार लाने वाली होती है. चरमोत्कर्ष प्राप्ति से होने वाली प्रोलेक्टिन हार्मोन की वृद्धि मस्तिष्क की मूल कोशिकाओं से नै नान्त्रिका कोशिकाओं का निर्माण करने वाली होती हैं. ये सब लाभ संयमित यौनक्रिया द्वारा ही प्राप्त होते हैं क्यूंकि इसमें अति हानि करती है .
यौन क्रिया में अति अनुकम्पीय प्रभाव को और बढ़ाने वाली होती है. परिणामस्वरूप परअनुकम्पीय तंत्र दमित होता है जिससे वह अपना काम ठीक से नहीं कर पाता और शरीर विश्राम और तनावमुक्त अवस्था को पूरी तरह प्राप्त नहीं कर पाता. यही कारण है की आज पाचन और यौन सम्बन्धी समस्याएं इतनी बढ़ गयी हैं. अति यौन क्रिया मस्तिष्क के रसायनो पर भी प्रभाव डालती हैं. इससे मस्तिष्क में सिरोटोनिन नामक रसायन की कमी होती है जिससे तनाव, चिड़चिड़ापन और अवसाद आदि उत्पन्न होते हैं . यौन जीवन की गुणवत्ता, क्रियात्मक दृष्टि से, स्वसंचालित अनुक्रियात्मकता के अनुरूप होती है. यदि परअनुकम्पीय और अनुकम्पीय तंत्रों के बीच का स्पंदन बाधित हो जाए तो ययन समस्याएँ उत्पन्न होती हैं. यौनेच्छा का ना होना, यौनेत्तेजना में कमी, शिश्न उत्थान सम्बन्धी समसयस, शीघ्र स्खलन आदि का आधार कई बार यह असंतुलित स्पंदन हो होता है. यौनक्रिया के शरीर पर पड़ने वाले इतने विस्तृत प्रभाव के कारण ही आयुर्वेद इस पर अंकुश लगते हुए संयमित रखने का निर्देश deta है. इसलिए आयुर्वेद कहता है की वीर्य पूरे शरीर में व्याप्त रहता है क्यूंकि बात सिर्फ सहायक यौन ग्रंथियों के स्त्रावों से सम्बंधित नहीं है बल्कि यौनक्रिया के पूरी शारीरिक प्रणाली पर प्रभाव और ऊर्जा व्यय से सम्बंधित है. हज़ारों वर्ष पूर्व लिखे गए आयुर्वेद के सूत्र ऐसी ही व्याख्याओं के सार रूप हैं . इसलिए यौनक्रिया यानि सहवास पर इतनी विस्तृत चर्चा आवश्यक थी.
विश्राम और थकान शारीरिक शिथिलता की अलग अलग अवस्थाएं होती हैं. इसी तरह यौनक्रिया यदि उचित और उपयुक्त हो तो शरीर को विश्राम की अवस्था में ले जाती है. हालाँकि कभी-कभार अपने सामर्थ्य से अधिक यौन क्रिया से कोई हानि नहीं होती किन्तु यदि हर यौनक्रिया के बाद थकान आती हो तो यह थोड़ी विचारणीय बात हो जाती है.
यौनक्रिया के बाद शिथिलता आने के कई कारण होते हैं. यौनक्रिया के दौरान घटने वाली बहुत सी प्रक्रियाओं में ऊर्जा का व्यय होता है. यदि ऊर्जा की कमी दीर्घावधि तक रहती है तो शरीर थकान की अवस्था को प्राप्त होता है. शारीरिक क्षमता के अनुरूप ऊर्जा व्यय की क्षतिपूर्ति शीघ्र ही हो जाती है जो पौष्टिक आहार और पर्याप्त नींद लेने से होती है.
अधिक आवृत्ति और समयावधि की यौनक्रिया करने से होने वाली थकान के मुख्य कारण होते हैं - पेशियों में ग्लायकोजन की कमी, पेशीय कोशिकाओं के बीच तरल पदार्थ और चयापचय से उत्पन्न लैक्टिक एसिड का एकत्र होना तथा परअनुकम्पीय नान्त्रिका तंत्र का दमित और कमज़ोर होना आदि. कमजोर परअनुकम्पीय तंत्र अनुकम्पीय प्रभावों को पूरी तरह निष्प्रभाव नहीं कर पाता जिससे शरीर यौनक्रिया समाप्त हो जाने के बाद भी तनावमुक्त नहीं हो पाता.
यह सही है की यौनक्रिया से वंशवृद्धि होती है और शारीरिक व् मानसिक सुख भी प्राप्त होता है किन्तु यह समझना भी जरुरी है की प्रकृति ने इन दोनों उपलब्धियों को यान-क्रिया से सम्बंधित क्यों किया. चिकित्सा विज्ञानं की उन्नति ने आज बिना यौन-क्रिया के कृत्रिम गर्भाधान द्वारा वंशवृद्धि करने में सफलता प्राप्त कर ली है. यौन क्रिया सिर्फ शारीरिक और मानसिक सुख प्राप्त करने का साधन मात्र नहीं है.दरअसल हम उस यौनक्रिया की बात कर रहे हैं जिसे सहवास कहते हैं ना की उस यौनक्रिया की जिसके अंतर्गत बहुत सी उटपटांग और अस्वाभाविक गतिविधियां की जाती हैं. सहवास या सम्भोग दो विपरीत लिंगी व्यक्तियों के बीच की घटना होती है. उचित और मर्यादित ढंग से किया गया सहवास दो व्यक्तियों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संतुलन को बनाने वाली स्वाभाविक व् प्राकृतिक प्रक्रिया का नाम है क्यूंकि प्रकृति के दो गुण साथ होते हैं और विपरीत चीजों में ही संतुलन की आवश्यकता होती है. वयस्कों में ऊर्जा को संतुलन में लाने का माध्यम यौनक्रिया होती है इसलिए हमारे देश के ज्ञानियों ने इसे "यौन-क्रीड़ा" नाम दिया है. ऊर्जा के इस महत्वपूर्ण आयाम में संतुलन साधना ही कल्याणकारी और लाभप्रद होता है.
जिस तरह शरीर का अच्छा स्वास्थ्य यौन-पक्ष को पूर्ण, संतुष्ट और सक्षम बनाता है उसी तरह पूर्ण संतुष्ट और सक्षम यौनपक्ष शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करता है. यौन (सेक्स) और स्वास्थ्य एक दूसरे से इतनी गहराई और रहस्य्मयी दांग से जुड़े हैं की दोनों में एक का भी विकृत, असंतुलित और अस्वस्थ होना, दूसरे को भी विकृत, असंतुलित और अस्वस्थ कर देता है. अस्वस्थता कब व्यक्ति के यौन जीवन को अस्वस्थ कर देती है और अस्वस्थ यौन कब व्यक्ति के स्वास्थ्य को अस्वस्थ्य में बदल देता है, पता नहीं चल पाता. केवल अतृप्त यौन ही नहीं बल्कि असंतुलित एवं अमर्यादित यौन आचरण भी धीरे धीरे मन, स्नायविक संस्थान और पूरे शरीर पर विपरीत प्रभाव डालते चले जाता है. शरीर को निरंतर स्वस्थ और सक्रीय banaye रखने के लिए इसका ऊर्जावान बने रहना जरुरी होता है और इसके लिए यौन सम्बन्धी मर्यादित आचार-विचार एवं आहार-विहार का पालन करना जरुरी होता है. ध्यान रखें स्वस्थ व्यक्ति ही सहज और सफल यौन व्यव्हार में उतर सकता है और सहज व् सरल यौन आचरण करने वाला ही स्वस्थ रह सकता है.
यौनक्रिया के इस विरोधाभासी अस्तित्व को समझना जरुरी है की इस तनावपूर्ण और उत्तेजना से भरपूर क्रिया के सफल निष्पादन के लिए मनमस्तिष्क और शरीर दोनों का ही तनावमुक्त , शांत और स्थिर होना ज़रूरी होता है अन्यथा शीघ्रस्खलन और नपुंसकता जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं. अच्छी और सफल यौनक्रिया निष्पादन के लिए मन-मस्तिष्क और शरीर का तनावमुक्त एवं स्थिर होना ज़रूरी होता है अतः किसी भी प्रकार के तनाव से स्त्री-पुरुष को बचके रहना चाहिए. तनावग्रस्त व्यक्ति को न भूख लगती है और न ही यौनेच्छा जगती है क्यूंकि हमारे शरीर की तनाव अनुक्रिया (stress response ) खतरे से निबटने के लिए बानी है और खतरे के समय न तो भोजन किया जा सकता है और ना ही यौनक्रिया की जा सकती है.