यौन रोगों में एक जटिल और दुष्ट रोग है उपदंश, जिसकी यदि शीघ्र ही सफल चिकित्सा न की जाए तो इसका विस्तार बहुत तेजी से होता है और अंत में यौनांग गल कर नष्ट होने लगता है. यह एक संक्रामक रोग है जो जो इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति के साथ संपर्क करने वाले के यौनांग में एक सप्ताह से चार सप्ताह के बीच प्रकट हो जाता है. इस रोग से बचना ही श्रेयस्कर है क्यूंकि यह एक अत्यंत कठिन-साध्य रोग है जो बहुत मुश्किल से ठीक होता है और कई बार ठीक नहीं भी होता.
गुप्त यौन रोगों में उपदंश, जिसे इंग्लिश में सिफलिस (Syphilis) कहते हैं, एक अति-कष्टदायक व् घृणित रोग है जो ऐसे ही स्त्री या पुरुष को होता है जिसने इस रोग से ग्रस्त स्त्री या पुरुष से सहवास किया हो इसलिए यह रोग सदाचारी स्त्री-पुरुष को नहीं होता. उपदंश रोग से बचने के लिए पुरुष को परस्त्रीगमन और स्त्री को परपुरुषगमन करने से बचना होगा.
आयुर्वेदिक ग्रंथों में सिर्फ "भाव प्रकाश " में उपदंश रोग का विवरण पढ़ने को मिलता है . यह रोग ज्यादातर तो इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति के साथ यौन-संपर्क करने पर ही होता है, वंशानुगत भी हो सकता है, जो की बहुत कम होता है, या फिर अनुचित तरीकों से यौन क्रीड़ा करने पर होता है. आयुर्वेद के अनुसार, उपदंशग्रस्त स्त्री से सहवास करने पर पुरुष को और उपदंशग्रस्त पुरुष से सहवास करने पर स्त्री को यह दारुण रोग हो जाता है. आयुर्वेद के भावप्रकाश ग्रन्थ के अनुसार हाथ का आघात लगने (हस्तमैथुन) से, नाख़ून या दांत से घाव (क्षत ) होने से, सहवास के बाद गुप्तिन्द्रिय को न धोने से, अति सहवास करने से , यौनांग में दोष होने से तथा अन्य प्रकार की गलत यौन-क्रीड़ाएं करने से पांच प्रकार का उपदंश रोग होता है.
आयुर्वेद के अनुसार उपदंश पांच प्रकार का होता है जो निम्नलिखित है. (According to Ayurveda there are five types of syphilis which are as follows ) :-
१) वातिक
२) पैत्तिक
३) श्लेष्मिक
४) सन्निपातिक
५) आगन्तुज
रोगग्रस्त व्यक्ति से सहवास करने पर होने वाला उपदंश "आगन्तुज" श्रेणी का होता है. ज्यादातर रोगी इसी "आगन्तुज" उपदंश से ही ग्रस्त होते हैं.
आधुनिक पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान (allopathy) के अनुसार यह रोग या तो पैतृक प्रभाव ( congenital ) से होता है या टेपरोनेमा पैलिडम (Treponema pallidum ) नामक जीवाणु ( Spirochaete -spiral -shaped bacterium ) के शरीर में प्रवेश करने पर होता है. इसका कारण इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति के साथ यौन संपर्क करने के अलावा ऐसे जीवाणु युक्त रक्त का शरीर में प्रविष्ट होना (blood transfusion ) भी होता है. अप्राकृतिक तरीकों से किये गए मैथुन से भी इस रोग के कीटाणु शरीर में प्रविष्ट हो सकते हैं. सार-संक्षेप में यह कहना पर्याप्त है की यह रोग गलत तरीके से और इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति के साथ यौन-संपर्क करने पर होता है. इस रोग से बचने का एकमात्र उपाय है सदाचरण करना.
उपदंश रोग का प्रभाव होने पर यौनांग के ऊपर एक स्फोट होता है जो कम से कम एक सप्ताह के अंदर या अधिक से अधिक ३-४ सप्ताह में हो जाता है. स्फोट से यौनांग में एक कोमल घाव ( soft chancre ) हो जाता है. पुरुषों के लिंग और स्त्रियों के भगोष्ठ पर यह घाव होता है. यह स्त्राव भी घाव पैदा करने का प्रभाव रखता है इससे यह घाव फैलता जाता है. यदि साफ़-सफाई न की जाए और उचित चिकित्सा न की जाए तो उपदंश रोग पूरे यौनांग को घाव से ग्रस्त कर देता है और यौनांग गलने व् नष्ट होने लगता है. उपदंश के घाव से पीला, गाढ़ा तथा रक्त मिला हुआ मवाद आता है. यह मवाद शरीर में जहाँ भी लगता है वहां घाव कर देता है. घाव के आसपास लाली बनी रहती है, जाँघों में गिल्टियाँ निकल आती हैं. इसके स्त्राव के दूषित प्रभाव से पूरा यौनांग और आसपास का हिस्सा घावों से भर कर गलने व् सड़ने लगता है. समझदारी इसी में है की पहले तो उन कारणों से बच कर रहा जाए जिन कारणों से उपदंश रोग होता है, दूसरे अगर किसी को यह दुष्ट रोग हो जाए तो फ़ौरन ही, बिना विलम्ब किये, अच्छे चिकित्सक से चिकित्सा करना चाहिए ताकि यह घृणित रोग शीघ्र ठीक किया जा सके.
जब तक अच्छे योग्य और इस रोग के विशेषज्ञ से संपर्क न हो सके तब तक इस रोग की रोकथाम करने के लिए कुछ लाभदायक परीक्षित प्रयोग यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं. इन प्रयोगों में से जो भी आवश्यक और उपयोगी लगे उनका उपयोग कर रोग को बढ़ने से रोकना चाहिए बाकी विधिवत चिकित्सा तो चिकित्सक से ही कराना चाहिए. यह एक कठिन रोग है इसलिए यह जरुरी नहीं की घरेलु उपायों से पूरी तरह ठीक हो ही जाए.
रोग ग्रस्त व्यक्ति को, रोग रहने तक, इस दस्तावर काढ़े का प्रयोग करना चाहिए ताकि मलशुद्धि होती रहे - गुलाब के फूल, काली मुनक्का, सनाय २०-२० ग्राम लेकर कूट कर एक गिलास (लगभग २०० मिली ) पानी में उबालें. जब ५० मिली पानी बचे तब उतार कर छान लें. इसे सोते समय पियें. इससे सुबह २-३ दस्त होंगे. जब तक उपदंश रोग दूर न हो तब तक, कब्ज़ की स्थिति होने पर, इस काढ़े का सेवन करते रहें.
त्रिफला चूर्ण १५० ग्राम और भृंगराज ५० ग्राम चूर्ण दोनों को एक लीटर पानी में डालकर उबालें. जब पानी चौथाई बचे तब उतार कर छान लें और इस पानी से दिन में २-३ बार घाव धोएं.
हरड़, बहेड़ा और आंवला - १००-१०० ग्राम. इन्हे मोटा मोटा कूट कर लोहे की कढ़ाई में डालकर तेज आंच पर रख कर हिलाते चलाते हुए जला लें. जल जाएँ तब तब उतार कर बारीक़ पीस कर चूर्ण कर लें. इसमें शहद डालकर गाढ़ा मरहम बना लें. इस मरहम को उपदंश के घाव पर लगाने से बहुत फायदा होता है.
गिलोय, सौंठ, मुलहठी - तीनों २०-२० ग्राम और बड़ के १०-१५ नरम पत्ते - इनको कूट लें और एक लीटर पानी में उबाल कर काढ़ा बना लें यानी २५० मिली पानी बचे तब उतार कर छान लें. इस काढ़े से सप्ताह में २-३ बार यौनांग धोने से उपदंश रोग में लाभ होता है.
दारुहल्दी,शंख की नाभि, रसोत , लाख, गोबर, गोंद, खाने का तेल, शहद, घी तथा दूध - सबको समभाग लेकर मिला लें और लुगदी बनाकर उपदंश के घाव पर लगाएं. इससे सूजन (शोथ ) और दाह ठीक हो जाती है. अनार के सूखे छिलकों को कूट पीस कर महीन चूर्ण करके शहद मिलाकर घाव पर लगाने से भी उपदंश में लाभ होता है. सिर्फ रसोत का चूर्ण शहद मिलाकर लगाने से भी घाव ठीक होता है.
घरेलु नुस्खे प्रस्तुत करने के बाद आयुर्वेद शास्त्र में बताई गयी उपदंश की चिकित्सा का विवरण प्रस्तुत करते हैं जो बहुत लाभप्रद सिद्ध हुई है. पथ्य अपथ्य का सख्ती से पालन करते हुए इस चिकित्सा का सेवन पूर्ण लाभ न होने तक करना चाहिए.
व्याधि हरण रसायन ५ ग्राम, रौप्य भस्म ५ ग्राम, गंधक रसायन १० ग्राम, प्रवाल पिष्टी ५ ग्राम, - सबको मिला कर ३० पुड़िया बना लें. एक एक पुड़िया शहद में मिलाकर सुबह शाम सेवन करें. इसके एक घंटे बाद सुबह शाम और एक बार दोपहर को यानी दिन में तीन बार उपदंशहर वटी और कैशोर गुग्गुल की २-२ गोली पानी के साथ निगल लें. महामंजिष्ठादि काढ़ा , सारिवासव और खदिरारिष्ट - ४-४ चम्मच समभाग पानी में मिलाकर दोनों वक़्त भोजन के बाद पियें. नीम के पानी से घाव धोकर पारदादि मलहम घाव या फुंसियों पर लगाएं. उपदंश के रोगी का पेट साफ़ रहना बहुत ज़रूरी है इसलिए कब्ज़ न होने दें.
रक्त शोधिकारिष्ट या रक्तदोषांतक , सारिवासव और चंदनासव - तीनों के ४-४ बड़ा चम्मच भर आधा कप पानी में डालकर पियें.