उपदंश की तरह एक और दुष्ट यौन रोग है - सुजाक , जो की व्याभिचारी स्त्री-पुरुषों को , उनके अनुचित यौनाचरण के दंड-स्वरुप होता है. यह भी एक संक्रामक रोग है अतः उन्ही स्त्री-पुरुषों को होता है जो इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति से यौन संपर्क करते हैं. उपदंश की तरह यह रोग भी सदाचारी स्त्री-पुरुष को नहीं होता.
सुजाक के विषय में किसी भी आयुर्वेदिक ग्रन्थ में कोई जिक्र नहीं मिलता इससे यह ख्याल होता है की प्राचीन काल में ये रोग होता हो नहीं होगा. सुजाक रोग में चूँकि लिंगेन्द्रिय के अंदर घाव हो जाता है और इससे पस निकलता है अतः इसे हिंदी में 'पूयमेह ' , औपसर्गिक पूयमेह और ' परमा ' कहते हैं और अंग्रेजी भाषा में गोनोरिया (gonorrhoea ) कहते हैं. पश्चिमी देशों में इसे क्लेप (clap ) के नाम से भी जाना जाता है. यहाँ इस रोग के विषय में विवरण देने के साथ ही , उपदंश के साथ इसकी तुलना करते हुए, दोनों रोगों में जो भेद है उसकी भी जानकारी दी जा रही है. आयुर्वेद में चूँकि सुजाक रोग का उल्लेख नहीं किया गया है इसलिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और भारतीय वैद्यों के अनुभव और अभिमत के आधार पर ही यह विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है.
विश्व भर में सोजाक के रोगी स्त्री-पुरुष व्यापक रूप से पाए जाते हैं. पश्चिमी देशों में उन्मुक्त यौनाचरण तेजी से फैला है और फैलता जा रहा है जिसका प्रभाव पूर्वी देशों पर भी पड़ा है अतः सब देशों में यौन रोग भी उसी मात्रा में फ़ैल रहे हैं. ऐसा ही यह यौन रोग सुजाक है जो उपदंश की तरह संक्रमण के कारण ही होता है और गोनोकॉकस (gonococcus ) नामक सूक्ष्म कीटाणु के कारण होता है इसलिए अंग्रेजी में इसे गोनोरिया कहते हैं. उपदंश (syphilis ) और सुजाक (gonorrhoea ) रोग अलग - अलग हैं अतः पहले इन दोनों दुष्ट रोगों में जो अंतर है उसकी चर्चा करते हैं.
इन दोनों रोगों सुजाक और उपदंश में मुख्य अंतर यह है की सुजाक में लिंगेन्द्रिय में भीतर घाव होता है और उपदंश में लिंगेन्द्रिय के बाहरी भाग में घाव होता है. सुजाक में लिंगेन्द्रिय में मूत्र मार्ग के पास घाव होता है, उपदंश में सुपारी (शिश्न मुंड ) पर घाव होता है. सुजाक का चेप (स्त्राव ) लगने से सुजाक ही होता है, उपदंश नहीं, इसी तरह उपदंश का स्त्राव (चेप) लगने से उपदंश ही होता है, सुजाक नहीं. दोनों रोगों में घाव से स्त्राव होता है पर दोनों के स्त्रावों के गुण-प्रभाव अलग-अलग होते हैं. दोनों रोग होते तो संक्रमण (infection ) से ही हैं पर दोनों के लक्षण और प्रभाव अलग-अलग हैं और परिणाम भी अलग-अलग होते हैं. सुजाक में मूत्रकच्छ रोग की तरह भयंकर जलन होती है और मूत्र मार्ग से पीप निकलती है क्यूंकि अंदर घाव होता है इसलिए इस रोग को 'औपसर्गिक पूयमेह ' भी कहते हैं, उपदंश में लिंगेन्द्रिय के ऊपर फुंसियां और घाव होते हैं जिनसे चेप (स्त्राव ) निकलता है. इस रोग में पीड़ा तो होती है पर सुजाक और मूत्रकच्छ जैसी भयंकर जलन नहीं होती. सुजाक को आतशक या गर्मी रोग भी कहते हैं. उपदंश और सुजाक रोग होने के काफी कुछ कारण और लक्षण मिलते हैं अतः साधारणतः हर एक व्यक्ति इनके भेदों को न समझ पाने के कारण यह पहचान नहीं पाता की वह उपदंश से ग्रस्त है या सुजाक से. कुछ प्रकार के कारण और लक्षण ऐसे भी होते हैं जो एक तीसरे ही रोग के होने की खबर देते हैं. इस रोग को 'फिरंग' कहते हैं. 'फिरंग' रोग के विषय में , अलग से एक आर्टिकल Biovatica .Com में दिया गया है जो आप ऊपर दिए गए search box में सर्च कर सकते हैं.
सुजाक का मुख्य लक्षण यह है की इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति (स्त्री या पुरुष ) से यौन -संसर्ग (सम्भोग) करने के बाद लगभग आठ दिन के अंदर ही , इस रोग के कीटाणु मूत्र मार्ग में शोथ यानी सूजन पैदा कर देते हैं जिससे भयानक जलन होती है , इन्द्रिय लाल हो जाती है, पेशाब करते समय कष्ट होता है, मूत्र में रक्त और पीप का अंश निकलता है, कमर में भारीपन, कब्ज़ और बुखार आदि लक्षण होते हैं. कभी कभी वातरक्त या गठिया भी हो जाता है. अंदर मूत्र मार्ग में हुआ घाव सूख कर सिकुड़ता है जिससे शिश्न - संकोच (stricture of urthera ) की स्थिति बनती है. इस स्थिति में मूत्र मार्ग अवरुद्ध हो जाता है जिससे पेशाब करने में बहुत कष्ट होता है. अगर पेशाब रुक ही जाए तब तो कष्ट की कोई सीमा नहीं रहती. तब मूत्र मार्ग में केथेटर डालने से ही पेशाब होता है. यह काम भी कम कष्टदायक नहीं. सच बात तो यह है की सुजाक और उपदंश होना ही महाकष्टदायक है.
स्त्रियों को जब सुजाक रोग होता है तो यह रोग गर्भाशय, डिंबनालिका (फेलोपियन tube - fallopian tube ), डिम्बाशय (ovary ) तथा उदर तक को प्रभावित कर लेता है जिससे इन अंगों में तीव्र शोथ, दाह एवं उदावरण शोथ (severe inflammation or peritonitis ) हो जाती है. इसका परिणाम यह भी होता है की स्त्री बाँझ हो जाए. यदि गर्भवती स्त्री को यह रोग हो जाये तो प्रसव के समय शिशु की आँखों में पीप लगने से 'नेत्राभिष्यन्द ' हो जाता है जिसे (ophthalmia neonatorum ) कहते हैं. इसलिए यह बहुत जरुरी है की गर्भवती स्त्री को, प्रसूति से पहले ही, इस रोग से मुक्त कर दिया जाए. इस रोग से ग्रस्त स्त्री को भी वैसे ही कष्ट होते हैं और लक्षण भी वैसे ही प्रकट होते हैं जैसे की इस रोग से ग्रस्त पुरुष को होते हैं.
सोजाक होने का मुख्य कारण तो वही है जो ऊपर बताया जा चूका है यानी सुजाकगृस्त स्त्री के साथ पुरुष का, और सुजाकगृस्त पुरुष के साथ स्त्री का सम्भोग करना, बाकी कुछ कारण और भी हैं जो इस रोग को पैदा कर सकते हैं जैसे बार बार स्वप्नदोष होना, नशीले द्रव्य खा कर कृत्रिम और अस्वाभाविक स्तम्भन-शक्ति बढ़ाना, छूटते वीर्य को अधिक आनंद की इच्छा से रोकना (squeezing method ), सुजाकगृस्त के पेशाब पर बैठ कर पेशाब करना, रजस्वला के साथ सहवास करना आदि. इन कारणों पर जरा खुलासा ढंग से विवरण देना जरुरी है.
पश्चिमी देशों में तो सेक्स अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है और यौन-क्रीड़ा करने के नए- नए तरीके, नए नए साधन और उपाय किये जा रहे हैं, सामूहिक और सार्वजानिक रूप से किये जा रहे हैं जिसका परिणाम यह हुआ है की गोनोरिया और सिफलिस से ग्रस्त स्त्री-पुरुषों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. अश्लील और यौनोत्तेजक वातावरण से प्रेरित स्त्री-पुरुष उन्मुक्त रूप से यौन-संपर्क कर रहे हैं और गुप्त रोगों के शिकार हो रहे हैं. पिछले १५-२० वर्षों से हमारे देश में भी इस पश्चिमी अश्लीलता और यौनाचरण की प्रवृत्ति का प्रभाव पड़ने और बढ़ने लगा है जिससे भारत में भी गुप्त रोगों से ग्रस्त स्त्री-पुरुषों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी है . कितने दुःख और हैरानी की बात है की दो घडी की मौज के मजे में आकर ऐसे लोग जिंदगी भर की पीड़ा और व्याधि को खुद होकर मोल ले लेते हैं.
यौनचिन्तन या यौनक्रीड़ा करने वाला पुरुष जब सोते हुए स्वप्न में भी ऐसी हरकतें करता है तब सचमुच ही उसका वीर्यपात हो जाता है. वीर्यपात होते ही नींद खुल जाती है और वीर्यस्खलन की प्रक्रिया रुक जाती है जिससे वीर्य सम्पूर्ण मात्रा में बाहर नहीं निकल पाता , मूत्र नाली में ही रुक जाता है. रुका हुआ वीर्य पेशाब में घाव कर देता है और फिर सारे लक्षण सुजाक जैसे प्रकट होने लगते हैं. यदि वीर्य सूख जाए तो कठोर होकर एक दूसरा रोग पैदा कर देता है जिसे शुक्राशमारी कहते हैं. स्वप्नदोष का रोगी, यदि नींद खुलते ही आलस्य छोड़ कर उठ जाए और पेशाब कर आये तो मूत्र नाली में रुका हुआ वीर्य निकल जाएगा और सुजाक या शुक्राशमारी होने की सम्भावना समाप्त हो जाएगी.
अनियमित आहार-विहार और दूषित आचार-विचार के कारण अधिकाँश युवक स्वप्नदोष और शीघ्रपतन के रोगी बने हुए हैं. आजकल मादक द्रव्यों का सेवन इसलिए भी बढ़ रहा है की लोग मादक-द्रव्यों का सेवन यौनशक्ति और स्तम्भनशक्ति को बढ़ाने के ख़याल से कर रहे हैं. इन मादक और गर्म प्रकृति के द्रव्यों का बार-बार सेवन करना बदन में गर्मी फूंक देता है और सुजाक के लक्षण प्रकट हो जाते हैं.
यह तरीका पश्चिमी देशों में बहुत प्रचलित है. उत्तेजना बढ़ने पर जब वीर्य-स्खलन होने लगता है तब लिंगेन्द्रिय को दबाकर वीर्य को बाहर जाने से रोकना squeezing method कहलाता है. इससे वीर्य अंदर ही रुक जाता है जो मूत्र नाली में घाव कर देता है और पीप आना व् जलन होना आदि शिकायतें पैदा हो जाती हैं. यह तरीका कदापि प्रयोग नहीं करना चाहिए.
जिस स्थान पर सुजाक का रोगी पेशाब कर गया हो, वहां बैठ कर पेशाब करने पर यदि इस रोग के कीटाणु लग जाएँ तो यह रोग हो सकता है क्यूंकि यह रोग संक्रामक (infectious ) है अतः सार्वजनिक ऐसे स्थान पर पेशाब नहीं करना चाहिए जहाँ दूसरे लोग पेशाब करते हों . यद्यपि पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान इस बात से सहमत नहीं है फिर भी व्यक्ति की शारीरिक स्थिति , शरीर की रोग-प्रतिरोध शक्ति आदि कुछ बातों पर निर्भर होता है की उस पर प्रभाव हो या न हो .
पत्नी जब रजस्वला हो यानी उसे ऋतू-स्त्राव हो रहा है उन दिनों में सहवास नहीं करना चाहिए. ऐसा करना स्त्री के लिए तो कष्टपूर्ण और अरुचिकर होता ही है, पुरुष के लिए भी यौनांग में व्याधि उत्पन्न करने वाला काम होता है.
सुजाक रोग की तीन अवस्थाएं होती हैं - प्रारंभिक अवस्था, मध्य अवस्था और तीसरी अवस्था. इन तीनो अवस्थाओं के विषय में आयुर्वेद के अनुसार संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत है .
सुजाक रोग से ग्रस्त स्त्री या पुरुष के साथ यौनसम्पर्क करते ही स्वस्थ पुरुष या स्त्री को अपने यौनांग में भयंकर गर्मी का अनुभव होता है जो इस बात का सूचक होता है की दूसरा व्यक्ति सुजाक से ग्रस्त है. इस संपर्क के बाद दो दिन से लेकर आठ-दस दिन के अंदर सुजाक के लक्षण प्रकट हो जाते हैं. लिंगेन्द्रिय में जलन होना, शिश्नमुंड का लाल हो जाना, सूज जाना, खुजली चलना , पेशाब करते समय पीड़ा होना, मूत्र मार्ग से पीप आना आदि लक्षण प्रारम्भिक अवस्था में प्रकट होते हैं. स्त्रियों में भी ऐसे लक्षण प्रकट होते हैं पर अधिकतर स्त्रियां इन लक्षणों को देखकर ये नहीं समझ पाती की ये लक्षण सुजाक के हैं क्यूंकि वे समझती हैं की यह स्त्राव श्वेत प्रदर का है और पेशाब में जलन किसी इन्फेक्शन की वजह से हो रही है. इसे सुजाक की प्रारम्भिक अवस्था कहते हैं. अक्लमंदी इसी में होगी की ये लक्षण देखते ही चिकित्सा करा ली जाए.
ऐसे लक्षण देख कर जहाँ तुरंत किसी अच्छे चिकित्सक से चिकित्सा कराना जरुरी होता है वहां ऐसे स्त्री पुरुष लज्जा और बदनामी के भय से रोग को छिपाये रखते हैं जिससे रोग बढ़ता जाता है. पेशाब में इतनी भयंकर जलन होती है की उस जलन से बचने के लिए रोगी जब तक पेशाब रोक सकता है तब तक रोकता है पर इसका परिणाम भी अच्छा नहीं होता है क्यूंकि पेशाब रोकने से लिंगेन्द्रिय में तनाव आता है जिससे घाव फटता और कष्ट बढ़ता है. पेशाब में घोर दाह होती है, पीप ज्यादा मात्रा में आने लगती है और रात में इसके लक्षण बढ़ते हैं. पेडू, कमर और जाँघों के जोड़ों के पास पीड़ा होती है, गुर्दों में दर्द होता है और यह स्थिति बर्दाश्त के बाहर हो जाती है. रोग की यह बढ़ी हुई अवस्था ही मध्य अवस्था (second stage ) है. रात में लिंगेन्द्रिय में तनाव आना इस रोग का लक्षण है.
तीसरी अवस्था में पहुँच कर रोगी को ऐसा लगता है की जैसे सुजाक ठीक हो गया हो पर वास्तव में दवा इलाज के असर से और समय बीत जाने से , दिन-ब-दिन रोग का जोर घटता जाता है , पेशाब की जलन भी कम होते होते नाम मात्र की रह जाती है. पीप भी कभी कभी आती है , कभी कभी बहुत दिनों तक नहीं आती पर कभी कभी सुबह लिंग को दबाने से मूत्र मार्ग के मुख पर पीप आयी दिखती है. कई बार ऐसा भी होता है की मूत्र नली में पीप जम जाती है जिससे पेशाब में रुकावट होने लगती है और पीप हटते ही पेशाब होने लगता है.
किसी किसी को किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं रहती और रोगी बेफिक्र हो जाता है की चलो, पीछा छूटा लेकिन वास्तविकता यही है की बिना उचित चिकित्सा के सुजाक ठीक हो नहीं सकता भले ही बरसों तक कोई शिकायत क्यों न हो. इसे ही पुराना सुजाक (chronic gonorrhoea ) कहते हैं. तीसरी अवस्था में पहुँच हुआ सुजाक असाध्य यानी लाइलाज (uncurable) हो जाता है . इसलिए इसे पुराना होने ही नहीं देना चाहिए.
जब तक किसी योग्य, अनुभवी और विद्वान् चिकित्सक से इलाज कराना संभव न हो पाए, तब तक इस रोग को बढ़ने न देने और कष्टों को दूर करने में सहायक सिद्ध होने वाले कुछ घरेलु उपाय किये जा सकते हैं. घरेलु उपाय और इलाज से सुजाक रोग जड़ से नष्ट किया जा सकता है इसकी संभावना बहुत ही कम है , लगभग नहीं के बराबर है इसलिए सुजाक के रोगी को चिकित्सक से इलाज करवाना ही होगा. इस रोग की रोकथाम करने और कष्ट निवारण करने वाले कुछ परीक्षित तथा लाभकारी घरेलु उपाय व् नुस्खे प्रस्तुत किये जा रहे हैं.
१) मल शुद्धि - सबसे पहला काम है पेट साफ़ रखना. पेट साफ़ रख कर दवाएं खाने से ज्यादा व् जल्दी लाभ होता है. गुलकंद २० ग्राम और मुनक्का (बीज हटा कर ) १५ नग - दोनों को घंटे भर तक पानी में गलाकर , सोने से पहले कपडे रखकर मसल लें और निचोड़ कर पी लें. कठोर कब्ज़ हो तो इसके साथ एक चम्मच भर 'पंच सकार चूर्ण ' फांक लें. यदि तीनो चीजों को दो गिलास पानी में डालकर काढ़ा कर लें यानी पानी जब आधा गिलास बचे व् उतार कर ठंडा करके मसल छान लें और पियें तो ज्यादा असर होता है. सुबह शौच खुल कर होता है जिससे पेट साफ़ और हल्का हो जाता है.
२) पेशाब खुल कर होना - इसके लिए दूध पानी की लस्सी पीना बहुत उपयोगी होता है. एक गिलास दूध और एक गिलास ठंडा पानी मिलकर थोड़ी सी शक्कर डाल दें. इसे ३०-४० बार लस्सी की तरह फेंट लें. लस्सी दिन में २-३ बार पीना चाहिए. शीतलचीनी (कबाबचीनी ) २० ग्राम, जौकुट कूट कर एक गिलास पानी में डालकर उबालें. जब पानी चौथाई भाग बचे तब उतार कर ठंडा कर लें. इसमें ८-१० बून्द मैसूर का असली चन्दन का तेल (sandal oil ) डालकर पी लें. इसे सुबह, दोपहर और शाम को ५-६ दिन पीने से पेशाब साफ़ आता है और सुजाक की जलन मिट जाती है. ५-६ दिन तक गेहूं की पतली ताज़ी चपाती में घी चुपड़ कर शक्कर बुरक कर खाना चाहिए.
३) शरीर शुद्धि - तेल की मालिश करके स्नान करना और दिन में कई बार ठंडा पानी पीना, दूध पानी की लस्सी पीना, आफलि का 'रक्त दोशांतक' या हमदर्द की 'साफी' २-३ माह तक लगातार सुबह-शाम पीना चाहिए. इसके साथ ही निम्नलिखित नुस्खा तैयार कर दो माह तक सेवन करने से बहित लाभ होता है :-
- गिलोय सत १० ग्राम, सफ़ेद मूसली २० ग्राम, तालमखाना ३० ग्राम, मखाने की ठुर्री ४० ग्राम और मिश्री ५० ग्राम - सबको कूट पीस कर छान कर शीशी में रख लें. सुबह-शाम १-१ चम्मच, मिश्री मिले एक गिलास गो-दुग्ध के साथ, सेवन करने से बहुत लाभ होता है. सुजाक ठीक होने के बाद भी ४० दिन तक इसका सेवन करने से फिर सुजाक लौटता नहीं. इस नुस्खे के सेवन से धातु दोष, स्वप्नदोष, शीघ्रपतन और मूत्रकच्छ आदि में भी बहुत लाभ होता है.
१) शीतल चीनी, फुलाई हुई फिटकरी और सोनागेरु असली - तीनों ५०-५० ग्राम. इनको पीस छान कर मिला लें. इसे सुबह तीन तीन ग्राम मात्रा में घंटे-घंटे भर से यानी ७-८ और ९ बजे दूध पानी की मीठी लस्सी के साथ ४५ दिन तक पीने से सुजाक में आराम होता है. यह नुस्खा Biovatica .Com को कुछ अनुभवी वैद्यों ने बताया है.
२) सफ़ेद चन्दन पानी के साथ पत्थर पर घिस कर एक चम्मच लेप तैयार करें. इसमें शक्कर मिलाकर दिन में ३-४ बार चाट लें. यह नुस्खा सुजाक में बहुत लाभ करता है. दिन में चन्दन का पानी पीना चाहिए. मिटटी की कोरी हांडी में २० ग्राम चन्दन-बुरादा और एक गिलास पानी डालकर रात को रख दें. सुबह इसे मसल छान लें. यही चन्दन का पानी है.
३) कलमी शोरा ५ ग्राम और बड़ी इलायची के दाने ५ ग्राम - दोनों को मिलाकर पांच पुड़िया बना लें. लाल साठी चावल के धोवन के साथ सुबह शाम एक एक पुड़िया सात-आठ दिन तक पीने से बहुत लाभ होता है.
४) कलमी शोरा आधा ग्राम, राई पीसी हुई आधा ग्राम , पीसी मिश्री १० ग्राम - इनको पीस छान लें. यह एक खुराक है. इसे सुबह ठन्डे पानी के साथ फांक लें. इस नुस्खे से पेशाब खुल कर आता है.
५) चावल बराबर कॉपर सल्फेट एक कप पानी में घोल लें. इस पानी से लिंगेन्द्रिय के मुंह पर पिचकारी लगाने से सुजाक रोग में बहुत आराम होता है.
६) सहता हुआ गर्म पानी टब में भरकर इस तरह बैठें की नाभ तक पानी में डूब जाए. इससे पेशाब खुल कर होता है और जलन दूर होती है. लिंगेन्द्रिय की सूजन भी दूर होती है.
सुजाक की चिकित्सा का विवरण आयुर्वेदिक ग्रंथों में नहीं मिलता इसलिए अनुभव के आधार पर लाभप्रद सिद्ध होने वाले कुछ परीक्षित उपाय और घरेलु नुस्खे ही यहाँ प्रस्तुत किये गए हैं. यदि इन उपायों से सुजाक रोग ठीक न हो तो सिवाय इसके और कोई चारा नहीं की किसी सुयोग्य चिकित्सक से ही चिकित्सा करवाई जाए. सुयोग्य चिकित्सक से मतलब है की जो वाकई इस रोग को ठीक करना जानता हो, यूँ ही मजबूर और दुखी रोगी को ठगने के लिए न बैठा हो.