वैदिक ऋषियों ने मनुष्य के लिए जीवन में चार पुरुषार्थ करना आवश्यक बताया था. वे चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष . धर्म अर्थात कर्तव्य पालन, अच्छा आहार विहार और आचार विचार का पालन इस तरह से करना की आयुर्वेद के अनुसार इस लोक और परलोक यानी वर्तमान जीवन और अगले जीवन (जन्म ) का कल्याण हो वैसा आचरण करना धर्म है. ऐसा करते हुए अर्थ की प्राप्ति करना यानी धन कमाना और जीवन को सार्थक करना, निरर्थक नहीं, फिर 'काम' यानी अच्छी कल्याणकारी कामनाओं की प्राप्ति कर अंत में मोक्ष यानी परमात्मा को प्राप्त होना पर हो उल्टा रहा है. पुरुषार्थ के मार्ग पर चलने के बजाये हम माया के प्रपंच में उलझ गए हैं. पहली सीढ़ी थी धर्म की सो तो माया की मिटटी से ढक कर ज़मीन में छिप गयी तो पैर सीधा अर्थ यानी धन वाली सीढ़ी पर और दूसरा कदम "काम" यानी कामवासना पर रखा जा रहा है. धर्म की जगह धन ने ले ली है और हमारा सारा पुरुषार्थ धन (money ) और काम (sex ) में उलझ कर रह गया है फिर मोक्ष की तो बात ही करना बेकार है.
आयुर्वेद के अनुसार जो कर्म पूर्व जन्म में या (वर्तमान में ) पूर्वकाल में किया गया है उसे दैव (प्रारब्ध ) कहा जाता है. इस जन्म में तत्काल (वर्तमान में ) जो कर्म किया जाता है उसे पौरुष (पुरुषार्थ ) कहा जाता है. दैव और पौरुष की विषमता रोगों की प्रवृत्ति (उत्पत्ति ) का कारण है और दैव-पौरुष की समता (समयोग) रोग की निवृत्ति का कारण है.
अर्थात आज वर्तमान काल में हम जो कर्म करते हैं वह हमारे पिछले कर्मों और उनके परिणाम (प्रारब्ध ) से भी प्रभावित रहता है. हम स्वस्थ और सुखी तभी रह सकते हैं जब हमारा पुरुषार्थ और प्रारब्ध समयोग करने वाला हो. यही कारण है की वर्तमान में अच्छे कर्म करते हुए भी लोग दुखी देखे जाते हैं और बुरे कर्म करते हुए भी सुखी देखे जाते हैं. यह पुरुषार्थ और प्रारब्ध में विषम योग होने का ही परिणाम होता है.