आजकल खानपान की अनियमितता , दूषित और मादक द्रव्यों का सेवन बढ़ता जा रहा है. इसके परिणामस्वरूप कुछ बीमारियां पैदा हो रही हैं. इनमे से एक बीमारी है यकृत शोथ यानी यकृत पे सूजन होना जिसे ऐलोपैथिक भाषा में हेपेटाइटिस (hepatitis ) कहा जाता है. इस रोग के बारे में बहुत उपयोगी और विस्तृत जानकारी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है.
यकृत हमारे शरीर का सबसे बड़ा एवं अत्यंत सक्रीय अवयव है. इस ग्रंथि द्वारा अनेक रासायनिक तथा उपयोगी कार्य सम्पादित होते हैं. इसका भार प्रायः १२००-१५०० ग्राम होता है. यह हमारे शरीर में पेट के दाहिनी ओर अंतिम पसलियों के निचे सुरक्षित रूप से स्थिर रहता है.
शरीर स्वस्थ बना रहे, शरीर का पोषण होकर रक्त शुद्ध बना रहे जैसे विभिन्न कार्य यकृत करता है. यकृत शरीर कीमहत्वपूर्ण रसायनशाला है, इसके कार्य किसी भी बड़ी फैक्ट्री से कम नहीं हैं. शारीरिक स्वास्थ्य बनाये रखने में महत्वपूर्ण अवयव , ह्रदय, वृक्क, स्वादुपिंड, फेफड़े आदि के कार्य यकृत के सहयोग से ही संपन्न होते हैं.
- ग्रहण किये गए भोजन से , रक्त निर्माण की प्रक्रिया में, यकृत का महत्वपूर्ण योगदान है. मुख, आमाशय, छोटी व् बड़ी आँतों में ग्रहण किये हुए आहार पर विभिन्न यांत्रिक व् रासायनिक प्रक्रिया होकर , आहार रस रूप में परिवर्तित होता है. आहार का पाचन व् रस रूप का रक्त रूप में बदलना यकृत के स्वस्थ होने पर निर्भर करता है.
- कार्बोहैड्रेट , फैट, प्रोटीन आदि के द्वारा ग्रहण किये गए आहारीय पदार्थों का चयापचय यकृत द्वारा संपन्न होता है.
- शरीर में ऊर्जा हेतु आवश्यक ग्लूकोज , शर्करा का संतुलन यकृत ही बनाये रखता है. अन्न द्वारा ग्लाइकोजेन का निर्माण और संचय यकृत ही करता है, जो ग्लूकोज में परिवर्तित होता है. ग्लूकोज के अभिशोषण के लिए आवश्यक इन्सुलिन के निर्माण की प्रेरणा यकृत के आहार पर क्रिया करने से उत्पन्न होती है. इन्सुलिन रेसेप्टर कोष यकृत में ही होते हैं. इसी तरह प्रोटीन तथा वसा भी पचने के बाद यकृत द्वारा ही रक्त में मिलने योग्य बनते हैं.
- हमारा रक्त आमाशय एवं आँतों से होकर यकृत में पहुँचता है और उसके पश्चात ही सारेशरीर में रक्ताभिसरण संस्थान द्वारा , उसमे परिवर्तन होने पर - सम्पूर्ण शरीर एवं समस्त अवयवों के पोषण योग्य होता है.
- शरीर के सम्पूर्ण रक्त का १/४ हिस्सा यकृत में ही स्थित रहता है- इसी से अनुमान किया जा सकता है की यकृत का चयापचय क्रिया में कितना महत्वपूर्ण सहयोग होता है.
- कोलेस्टेरोल नियंत्रण भी यकृत का काम है. रक्तवाहिनियों में कोलेस्टेरोल की पर्त जमने से हृदयाघात, उच्च रक्तचाप आदि रोग होते हैं. ट्रायग्लिसराइड, फ्री फैटी एसिड, hdl ,ldl , vldl आदि कोलेस्टेरोल के घटकों का निर्माण एवं नियंत्रण तथा इनका स्वस्थ संतुलन बनाये रखने का काम भी यकृत करता है.
- रक्त जमने के लिए आवश्यक तत्व प्रोथ्रॉम्बिन, फाइब्रिनोजेन आदि रक्त के घातक, स्वस्थ यकृत द्वारा ही निर्मित होते हैं.
-विटामिन ए, b12 आदि यकृत में संचित होते हैं और यकृत उनके निर्माण में भी सहायक होता है.
-पित्त का निर्माण यहाँ से होकर पित्त की थैली में पहुँचता है. बिलीरुबिन, बाइल साल्ट्स का निर्माण इसी प्रक्रिया कांग है जो पीलिया रोग में बढे हुए पाए जाते हैं.
- यकृत स्थित कुफ्र-कोष रोगप्रतिरोगधक क्षमता को अक्षुण्ण बनाये रखते हैं.
हेपेटाइटिस यकृत की एक सामान्य रूप से होने वाली बीमारी है. इसमें यकृत कोशों में प्रदाह की अवस्था उतपन्न हो जाती है. यकृत कोशिकाएं लगातार क्षतिग्रस्त होती रहती हैं. फलस्वरूप यकृत द्वारा सम्पादित विभिन्न रासायनिक कार्य धीमे हो जाते हैं, या विकृत हो जाते हैं. यकृत कमज़ोर हो जाता है. यह अवस्था लंबे समय तक रहने से यकृत में कड़ापन आता है, ऑटो-इम्यून व्यवस्था में व्यवधान पद जाता है जिससे सम्पूर्ण स्वास्थ्य चरमरा जाता है. हेपेटाइटिस की बीमारी तीव्र अवस्था में कुछ काल रहकर ठीक हो जाती है या कष्टसाध्य व् असाध्य अवस्थाओं को प्राप्त होकर घातक सिद्ध होती है.
कुछ संक्रामक कीटाणु या वायरस , ए, बी, कि, डी, इ, तथा नॉन ए, नॉन बी, यकृत पर आक्रमण करते हैं तब "यकृत-शोथ" यानी हेपेटाइटिस की अवस्था उत्पन्न होती है. यकृत पर इन जीवाणुओं का आक्रमण तब ही होता है जब कतिपय कारणों से यकृत दुर्बल हो जाता है. रक्त कमज़ोर होने पर रोग-प्रतिरोध की क्षमता का हास हो जाता है. शरीर में आँतों आदि अवयवों से विविध कारणों से विकार एकत्र होने पर जीवाणुओं के आक्रमण के लिए उर्वरा भूमि उत्पन्न हो जाती है तब यह कीटाणु यकृत पर हमला बोल देते हैं.
अप्राकृतिक आहार (unnatural diet ) - तले भुने पदार्थ, तेल, घी व् वेजिटेबल घी से बने वसायुक्त गरिष्ठ पदार्थों का सेवन, नमकीन, मिठाइयां, मिर्च मसालों से युक्त आहार, अति शर्करा या नमक का सेवन, परिष्कृत पदार्थ - बेसन, मैदे से बने पदार्थ,ब्रेड,बिस्कुट आदि का नित्य सेवन, अंडे व् मांसाहार का सेवन, दुष्पाच्य विकृत आहार और अधिक खाने की प्रवृत्ति से पाचन कमज़ोर हो जाता है. इन कारणों से आँतों व् पेट से सम्बंधित बीमारियां उत्पन्न होती हैं. अपच, कब्ज़, आँतों व् पेट में सूजन होने से अधपचा आहार केवल यकृत पर बोझ ही नहीं होता, अपितु सड़ांध उत्पन्न होने से विविध कीटाणुओं के आक्रमण एवं पनपने की पोषक भूमि निर्मित होने का भी कारण बन जाता है. फलतः यकृत का कार्यभार बढ़ जाता है.उसके कार्य मंद हो जाते हैं जिससे रासायनिक परिवर्तन होकर यकृत की कार्यक्षमता का हास होता है और अवयव में विकृति उत्पन्न होती है.
यकृत के दुश्मन (enemies of the Liver ) - यकृत का सबसे बड़ा दुश्मन या प्रमुख शत्रु है - शराब. इसी प्रकार अफीम, भांग, गांजा आदि नशे वाले पदार्थों का सेवन, तम्बाकू, गुटका, पान मसाले भी यकृत को थका देते हैं.
औषधि और दवाओं का सेवन(use of medicines ) - सेवन की जाने वाली औषधि का चयापचय और निष्कासन यकृत के द्वारा ही होता है. अनेक औषधियां प्रायः यकृत पर दुष्प्रभाव ही डालती हैं. ब्यूटाजोलीडीन, पैरासिटामोल , क्षय में प्रयुक्त पास आदि दवाएं, नैट्रोप्यूरोटिन, एंटीबायोटिक्स आदि का लगातार प्रयोग निश्चित रूप से यकृत के लिए घातक सिद्ध होता है. इस प्रकार विभिन्न दवाइयों का निरंतर या लंबा सेवन यकृत को कमज़ोर बनाता है.
यकृत शोथ के प्रमुख कारणों में वायरस, जीवाणु संक्रमण प्रमुख हैं. संक्रमित अन्न, दूषित जल, संक्रमित व्यक्ति के मुख, नासा, पेशाब एवं मल के माध्यम से हेपेटाइटिस के जीवाणु शरीर में प्रविष्ट होकर कमज़ोर यकृत में पहुंचकर शोथ का कारण बन जाते हैं.दन्त चिकित्सक तथा शल्य चिकित्सक द्वारा उपचारों में लापरवाही बरतने से हेपेटाइटिस के जीवाणु शरीर में सहज प्रवेश कर जाते हैं. हेपेटाइटिस के जीवाणु से संक्रमित माताएं, अपने दूध के माध्यम से, बच्चों में हेपेटाइटिस का बीजारोपण कर देती हैं. जब विविध कारणों से यकृत तथा शरीर कमज़ोर हो जाता है, तब ही जीवाणु बीमारी के निमित्त बनते हैं अन्यथा स्वस्थ यकृत में उनका विनाश सहज हो जाता है और यह बीमारी पनप नहीं पाती है.
यकृत कमज़ोरी के अन्य कारण (other causes of liver weakness ) - १. रक्तदोष सेसंबंधित बीमारियां - जैसे अनीमिया (रक्ताल्पता ), विविध बुखार जैसे मलेरिया, टायफाइड , एमीबाइसिस, न्यूमोनिया व् आँतों के, पेट के रोग एवं उनकी सूजन यकृत पर अपना दुष्प्रभाव छोड़ जाती हैं, जिससे यकृत दुर्बल तथा रोग प्रतिरोध क्षमता कमज़ोर हो जाती है. २. जलने पर, कैंसर उपचार में रेडिएशन के कारण.
हेपेटाइटिस का विभाजन रोग लक्षण के अनुसार निम्न प्रकार से किया जाता है :-
तीव्र यकृत शोथ (Acute Hepatitis ) - यह अचानक विभिन्न लक्षणों के साथ प्रस्फुटित होता है. कम समय रहकर उपचारोपरांत ठीक हो जाता है. कभी-कभी यह संक्रामक रूप धारण कर लेता है.
जीर्ण यकृत शोथ (Chronic Hepatitis ) - तीव्र यकृत शोथ लंबे समय तक चलते रहने पर तथा यकृत का स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त न होने पर, यकृत के कोशों में तथा कार्यों में विशिष्ट बदलावों के कारण उपस्थित होने वाले लक्षण समुच्चयों "जीर्ण यकृत शोथ" यानी "क्रोनिक हेपेटाइटिस" कहा जाता है. तीव्र यकृत शोथ में चलने वाला रोग, छह माह तक लगातार चलने पर, जीर्ण कहलाता है. यकृत के कोशों में व् रासायनिक क्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर क्रोनिक हेपेटाइटिस दो प्रकार का होता है.
क्रोनिक पर्सिस्टेन्ट हेपेटाइटिस - यह अवस्था निम्न कारणों के चलने पर होती है :-
- वायरस ए, बी या नॉन ए, बी हेपेटाइटिस लंबेसमय तक चलने पर हेपेटाइटिस इस अवस्था को पाता है.
- कतिपय औषधि सेवन लगातार लंबे समय तक चलने पर यकृत इस स्थिति को प्राप्त होता है. विशेषकर गुर्दे से सम्बंधित रोगों में तथा कैंसर में प्रयुक्त दवाइयां तथा उपचार, यकृत की इस अवस्था का कारण बनते हैं.
- लंबे समय तक शराब का सेवन करने से.
- जीर्ण आंत्रशोथ, आँतों में छाले होना, एमीबियासिस, आदि विविध कीटाणुओं का आंत्र पर संक्रमण होना. कतिपय अवस्थाओं में, रोगियों में यह अवस्था लक्षण रहित होती है. रोगी अचानक अत्यधिक थकान तथा पेट की दायीं तरफ दर्द की शिकायत करता है. यह अवस्था पथ्यपूर्वक आहार-विहार करने तथा उचित उपचारों से कुछ समय में ठीक हो सकती है.
क्रोनिक एक्टिव हेपेटाइटिस ( chronic active hepatitis )- विभिन्न कारणों से उत्पन्न यकृत शोथ छह माह से अधिक चलते रहने पर हेपेटाइटिस इस जीर्ण स्थिति को प्राप्त होता है. इस अवस्था में निम्नलिखित अवस्थाएं बनती हैं :-
- यकृत में कठिनता आ जाती है जिसे सिरोसिस कहते हैं.
- यकृत बड़ा होता है.
- पीलिया की स्थिति बनती है.
- कालांतर में पेट की त्वचा की अंतर-परतों में जल व् कुछ जलीय तत्व इकट्ठे होकर 'जलोदर' की स्थिति हो जाती है.
- इस स्थिति में रक्त में विशिष्ट परिवर्तन होते हैं. एल.ई. रक्त कण एवं सीरम गेमग्लोबिन बढ़ जाते हैं.
- यह स्थिति कैंसर में परिवर्तित हो जाती है तथा तब असाध्य और प्राणलेवा हो जाती है.
हेपेटाइटिस की बीमारी प्राणहर है. भयानक माने जाने वाले कैंसर और एड्स से भी अधिक भयंकर है. यह बीमारी समस्त विश्व में पायी जाती है. विश्व के ६.५ करोड़ व्यक्ति हेपेटाइटिस तथा उससे प्राप्त उपद्रव जैसे पीलिया, यकृत सिरोसिस, जलोदर व् यकृत कैंसर से मौत को प्राप्त होते हैं. विशेषकर हेपेटाइटिस बी सद्यः प्राणहर है. प्रतिवर्ष इस बीमारी से मारने वालों की संख्या विश्व में २० लाख तथा भारत में २ लाख से अधिक बताई जाती है. हेपेटाइटिस बी जैसी भयंकर बीमारी से त्रस्त और संक्रमण से ग्रस्त रोगियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती हुई नज़र आती है.
रोग लक्षण - जिस प्रकार ह्रदय या फेफड़ों से सम्बंधित बिमारियों में स्पष्ट रोग-लक्षण प्रस्फुटित होते हैं वैसे विशिष्ट व् स्पष्ट लक्षण यकृत की बिमारियों में नहीं पाए जाते. कुछ काल तक हेपेटाइटिस चलने पर निम्नलिखित लक्षण परिलक्षित होते हैं.
पूर्व लक्षण - अग्निमांध, अरुचि, कब्ज़, गैस, अम्लपित्त, कभी कभी अतिसार, कभी कभी जी मचलाना एवं उलटी का होना, पेट के दाहिने हिस्से में हल्का या तेज दर्द का होना, अनावश्यक थकान, सिरदर्द, डिप्रेशन व् बुखार का होना, खुजली का होना, इनमे से एकाधिक लक्षण नज़र आते हैं.
पश्चात लक्षण - बुखार का बना रहना, कमज़ोरी व् थकान का ज्यादा होना व् बना रहना , पेशाब का पीला होना, पीलिया, यकृत प्लीहा का बढ़ना, वज़न का बढ़ना , रक्ताल्पता (एनीमिया ) आदि लक्षण प्रकट होते हैं.
उपद्रव - यकृत व् प्लीहा का बढ़ना, पीलिया, खुजली, सिरोसिस, जलोदर, यकृत में कैंसर आदि असाध्य होते हैं, इन उपद्रवों से रोगप्रतिरोधक क्षमता घट जाती है. इन्हें ऑटो-इम्मयून डिजीज कहते हैं.
निदान - बीमारी की तीव्रता तथा यकृत में रक्त में कितनी खराबी हुई है इसे निम्नलिखित जांचों द्वारा जाना जाता है. इन्ही उपायों द्वारा लाभ का अनुमान भी किया जाता है :-
- रक्त जांच - श्वेत रक्त कानों में वृद्धि.
- पेशाब की जांच - बिलीरुबिन , यूरोबिलिनोजन का अधिक होना, यूरेटस का होना आदि.
यकृत की कार्यप्रणाली किस हद तक गड़बड़ा गयी है तथा कोशों में कितनी खराबी आयी है - इसका अनुमान निम्नलिखित जांचों द्वारा होता है :-
- रक्त में बाइल पिग्मेंट ( सीरम बिलीरुबिन ) का उपस्थित होना.
- SGOT व् SGPT का बढ़ना.
- सीरम एल्कलाइन फास्फेट का उपस्थित होना.
- एंटीजेन, एंटीबाडी परीक्षा - हेपेटाइटिस बी में (HB Ag ) पाया जाता है.
- प्रमुख रोग लक्षणों के आधार पर रोग कितना बढ़ चूका है, इसका अनुमान हो जाता है.
- लिवर (यकृत) को, पेट को हाथ लगा कर कितना बढ़ा है, कितनी कठोरता है, इसके बारे में जाना जा सकता है.
लिवर नीडल बायोप्सी द्वारा कोशों में विघटन की स्थिति की जानकारी मिलती है.
यकृत के लिए विषाक्त द्रव्यों का त्याग - शराब, अफीम, भांग, गांजा आदि नशे वाले पदार्थों , तम्बाकू, गुटका आदि का सेवन न करना, जिनसे यकृत ख़राब हो, उसकी कार्यक्षमता में है हो, ऐसे सभी पदार्थों के त्याग से यकृत अपनेआप नवीनता को प्राप्त होकर स्वाभाविक रूप में स्वस्थ हो जाता है.
आहार - हेपेटाइटिस से बचने के लिए और हेपेटाइटिस होने पर रोगनिवारण हेतु आहार का महत्त्व सर्वोपरि है. हमारा खाया हुआ आहार यकृत की सहायता बिना खून में मिलने योग्य नहीं होता. यकृत का तंदुरुस्त रहना आहार पर ही निर्भर करता है. रोग दूर करने के लिए आहार परिवर्तन लाभदायक होता है.
निषेध - अति खाने की प्रवृत्ति, बार-बार खाने की प्रवृत्ति, गरिष्ठ आहार, तेल, घी व् अन्य वसायुक्त पदार्थों का सेवन न करें. अंडा, मिर्च, मसाले, मांसाहार बंद रखें. मिठाई, नमकीन, ब्रेड, पोलिश किये चावल आदि पाचन को असंतुलित कर यकृत के कार्यों में बोझ बनते हैं अतः इनका सेवन न करें. चाय, कॉफ़ी, चॉकलेट, कोकाकोला, लिम्का जैसे उत्तेजक पदार्थ लेना बंद करें. शराब, अफीम, गांजा, भांग, तम्बाकू, बीड़ी-सिगरेट, आदि यकृत के दुश्मन हैं; इनका सेवन छोड़ दें. दालों का सेवन, रोग की अवस्था में स्वाभाविक न होने तक, नहीं करना चाहिए क्योंकि नाइट्रोजन युक्त होती है जो यकृत पर बोझ डालती हैं.
हेपेटाइटिस के कीटाणु सुप्तावस्था में वर्षों तक शरीर में पड़े रहते हैं और रोग के लक्षण दिखाई नहीं देते. ऐसे व्यक्ति संक्रमण का शिकार बनते हैं. निम्नलिखित बातों का ध्यान रहे तो संक्रमण से बचा जा सकता है.
- रेस्टोरेंट ,होटल में भोजन करने की आदत से बचें.
- एक थाली में साथ खाना खाने से बचें.
- तौलिया आदि शरीर के संपर्क में आने वाले दूसरों के वस्त्रों का प्रयोग न करें.
- रक्त चढाने की व् इंजेक्शन लेने की जरुरत हो तो वह संक्रमित न हो, इसका ध्यान रखें.
- डिस्पोज़ल सिरिंज का प्रयोग करें.
कब्ज़, एसिडिटी, अपच न हो इसका ध्यान रखें.
कुछ प्राकृतिक उपचार यकृत को स्वाभाविक अवस्था प्रदान करने में सहायक होते हैं. जैसे - जीर्ण कब्ज होने पर गुनगुने गर्म पानी के एनिमा का प्रयोग करें. रेचक औषधि का प्रयोग न करें. इनके प्रयोग से समस्त पाचन प्रणाली, आंतें, लिवर, आदि उत्तेजित होकर थक जाते हैं. कमजोर हो जाते हैं.
- पेडू पर ठन्डे पानी की पट्टियां दिन में २/३ बार रखें या पेडू पर स्वच्छ , शीतल मिटटी की पट्टी का प्रयोग करें.
- सुबह-शाम आधा घंटा ठन्डे जल से कटिस्नान करने से यकृत प्रदाह में लाभ होता है.
- शीतल प्रयोगों से अनावश्यक उष्णता दूर हो जाती है . पाचन तंत्र में सुधार हो जाता है. यकृत की सूजन घट जाती है व् यकृत स्वस्थ व् मज़बूत बनता है.
विशिष्ट उपचार - हेपेटाइटिस A पीलिया होने पर एक से दो सप्ताह तक मात्र फल, फल का रस या सलाद, उबली सब्जियों का या एक सब्जी का सूप लेकर रहने से यकृत स्वाभाविक हो जाता है. बाद में धीरे धीरे शुद्ध आहार पर आ जाना चाहिए.यकृत प्रदाह की अवस्था में भूख मंद या बंद हो जाती है.ऐसे समय आहार ग्रहण करने से यकृत का कार्यभार बढ़ता है. यकृत शोथ में जीर्णावस्था में रसाहार या जलोपवास करने से भी लाभ होता है. रोगी की शारीरिक अवस्था, रोग लक्षणों की उग्रता देख कर युक्ति पूर्वक इन्हे प्रायोजित करने से आशातीत लाभ होता है.