डायबिटीज (मधुमेह ) के विभिन्न प्रकार
विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O .) ने मधुमेह (डायबिटीज ) रोग के विभिन्न प्रकार इस प्रकार बताये हैं - डायबिटीज मेलाइटिस (DM , Diabetes Mellitus ) (१)इन्सुलिन पर निर्भरता वाला मधुमेह (IDDM , INSULIN - DEPENDENT Diabetes mellitus ) (२) ऐसा मधुमेह (डायबिटीज) जिसमे इन्सुलिन की निर्भरता न हो (NIDDM , Non INSULIN dependent Diabetes mellitus ) (अ) सामान्य अथवा कम वज़न के व्यक्तियों में होने वाला मधुमेह (डायबिटीज). (ब) मोटे व्यक्तियों में होने वाला मधुमेह (डायबिटीज) (३) कुपोषण जन्य मधुमेह (MRDM , Malnutrition related Diabetes mellitus. (४) स्वादु पिंड के रोगों, यकृत की असामान्यताओं आदि कारणों से होने वाला मधुमेह (डायबिटीज) (५) ग्लूकोस की ग्रहणशीलता बाधित होने के कारण होने वाला मधुमेह (डायबिटीज) (६) गर्भावस्था (pregnancy ) में होने वाला मधुमेह (डायबिटीज).
मधुमेह (डायबिटीज) बहुत पुराने समय से पाया जाने वाला अत्यंत पुराना रोग है जिसे बोलचाल की भाषा में 'शक्कर की बीमारी' या सिम्पली 'शुगर' रोग के नाम से जाना जाता है. मूत्र के साथ शर्करा का उत्सर्जन होने, रक्त में शर्करा की मात्रा, सामान्य मात्रा से बढ़ जाने की स्थिति होने के कारण ही इस रोग को 'शक्कर की बीमारी' कहते हैं. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो मधुमेह (डायबिटीज) रोग, पाचन प्रक्रिया यानी चयापचयिक असामान्यता ( metabolic disorders ) के कारण होने वाला रोग है जिसमे रक्त व् मूत्र में ग्लूकोस की मात्रा बढ़ जाती है. यह रोग यदि जल्दी ही दूर ना कर दिया जाये तो यह असाध्य हो जाता है और जीवन पर्यन्त पीछा नहीं छोड़ता. ऐसी स्थिति में इसे नियंत्रित ही किया जा सकता है और इसमें भी कठिनाई होती है.
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार मधुमेह (डायबिटीज) दो प्रकार का होता है. डायबिटीज इन्सिपिडस और डायबिटीज मेलिटिस. यूँ तो दोनों प्रकार के मधुमेह (डायबिटीज) में मूत्र में व् रक्त में शर्करा वाला दोष पाया जाता है पर दोनों प्रकार के मधुमेह (डायबिटीज) में उक्त स्थिति अलग-अलग कारणों से उत्पन्न होती है. डायबिटीज इन्सिपिडस में पियूष ग्रंथि द्वारा स्त्रावित होने वाले डाययुरेटिक हार्मोन की कमी होने के कारण मूत्र विसर्जन बहुत ज्यादा मात्रा में होने लगता है. और डायबिटीज मेलिटिस में इन्सुलिन नामक हार्मोन की कमी होने से, शरीर के ऊतक, ग्लूकोस का उपयोग नहीं कर पाते जिससे रक्त में ग्लूकोस की मात्रा बढ़ने लगती है और मूत्र ज्यादा मात्रा में होने लगता है. आमतौर पर डायबिटीज के इस दूसरे प्रकार से पीड़ित रोगी ज़्यादा पाए जाते हैं. मधुमेह (डायबिटीज) रोग के रोगी के लिए उपयोगी आहारीय उपचार के बारे में बताने से पहले उन प्रमुख कारणों की चर्चा करना ज़रूरी है जो इस रोग के होने की संभावना निर्मित करते हैं या कर सकते हैं.
वंशानुक्रम - मधुमेह (डायबिटीज) होने का एक कारण वंशानुगत प्रभाव होना होता है. यदि माता-पिता दोनों डायबिटीज के रोगी हों तो उनकी संतान को भी डायबिटीज रोग होगा ही. ऐसा भी होता है की दूसरी पीढ़ी मधुमेह (डायबिटीज) से पीड़ित न भी हो तो उसके बच्चे मधुमेह (डायबिटीज) से पीड़ित हो सकते हैं. ऐसा भी हो सकता है की मधुमेह (डायबिटीज) से पीड़ित माता पिता के आधे बच्चे मधुमेह के रोगी और आधे मधुमेह (डायबिटीज) के संवाहक बन जाएँ.
मोटापा - मोटे व्यक्तियों को डायबिटीज होने की सम्भावना ज़्यादा होती है. आधे से अधिक मधुमेह के रोगी मोटे पाए जाते हैं. अधिक मात्रा में आहार लेने वाले व्यक्तियों में, इन्सुलिन के निर्माण और चयापचयिक अनियमितता के कारण, मधुमेह (डायबिटीज) रोग हो सकता है.
खानपान - खानपान में अनियमितता एवं अनुचित आदतें मधुमेह (डायबिटीज) होने की स्थितियां निर्मित करती हैं. लंबे समय तक अधिक मात्रा में अधिक शर्करायुक्त भोजन करना और काम श्रम करना भी डायबिटीज होने का कारण होता है.
चिंता व् तनाव - हमेशा चिंता और मानसिक तनाव से पीड़ित बने रहने से भी डायबिटीज रोग हो जाता है. यदि पहले से हो तो रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है. तनावग्रस्त व्यक्ति की पाचन क्रिया ठीक से काम नहीं करती इससे चयापचयिक क्रिया गड़बड़ा जाती है और डायबिटीज रोग हो जाता है.
आयु का प्रभाव - यद्यपि डायबिटीज रोग किसी भी उम्र में हो सकता है फिर भी ५० वर्ष की आयु के बाद इसके होने की सम्भावना अधिक होती है.
स्वादुपिंड तथा यकृत विकार - कई बार स्वादुपिंड के क्षतिग्रस्त होने से इन्सुलिन का बनना और स्त्राव होना कम हो जाता है जिसे स्वादुपिंड का शोथ (pancreatitis ) , स्वादुपिंड का कैंसर होना या स्वादुपिंड को ऑपरेट करके निकाल देने (pancreatectomy ) की स्थिति में भी डायबिटीज बीमारी हो जाती है. यकृत संबंधी रोग, विशेषकर हेपेटाइटिस और सिरोसिस होने पर, ग्लूकोस का उपयोग करने की क्षमता शरीर में कम हो जाती है जिससे रक्त में ग्लूकोस की मात्रा बढ़ जाती है. इस स्थिति को ही डायबिटीज रोग होना कहते हैं.
संक्षेप में कहा जाये तो किसी भी कारण से, इन्सुलिन हार्मोन की कमी या इसकी क्रियाशीलता में कमी का परिणाम है डायबिटीज रोग होना. यह हार्मोन ग्लूकोस का चयापचय कर ऊर्जा उत्पादन के लिए उत्तरदायी होता है. जब किसी कारण से आहार में लंबे समय तक शर्करायुक्त पदार्थों की मात्रा अधिक ली जाती रहे या इन्सुलिन का स्त्राव कम हो रहा हो तब ग्लूकोस का उपयोग ऊर्जा उत्पादन में नहीं हो पाता जिससे रक्त में ग्लूकोस की मात्रा बढ़ने लगती है. यह डायबिटीज बीमारी होने का प्रमुख कारण होता है.
डायबिटीज के प्रकार - उम्र के आधार पर डायबिटीज दो प्रकार का होता है. कम उम्र में होने वाला डायबिटीज और वयस्कों में होने वाला डायबिटीज . वयस्कों में यह आमतौर पर माध्यम आयु के मोटे व्यक्तियों में अधिक होता है. जबकि कम उम्र में होने वाला डायबिटीज २५ वर्ष से कम उम्र के , कम वज़न के लोगों में पाया जाता है जिनमे किन्ही कारणों से इन्सुलिन की कमी हो जाती है फलस्वरूप रक्तशर्करा का स्तर बढ़ जाता है. ग्लूकोस का उपयोग न हो पाने से ऊर्जा प्राप्ति के लिए वसा का उपयोग अधिक होता है. वसा से ऊर्जा प्राप्त करने के दौरान , जो अंतिम पदार्थ बनते हैं उन्हें कीटोन्स कहा जाता है. ये कीटोन्स अधिक मात्रा में बन कर शरीर में जमा होने लगते हैं यह स्थिति कीटोसिस कहलाती है. कीटोसिस होने पर रोगी लंबी मूर्छा में चला जाता है व् अंत में उसकी मृत्यु हो जाती है. इस प्रकार की डायबिटीज को नियंत्रित करने के लिए इन्सुलिन के विशेष प्रयोग की आवश्यकता होती है. उचित उपचार के अभाव में अथवा अनियंत्रित स्थितियों में रोगी दीर्घकालीन मूर्छा (डायबिटिक कोमा ) में जा सकता है और मर भी सकता है.
पोषक तत्वों का चयापचय - मधुमेह रोग को चयापचयी असामान्यताओं (metabolic disorders )के फलस्वरूप होने वाला रोग माना जाता है. इस रोग में प्रोटीन, कार्बोहिड्रेट और वसा - तीनों का चयापचय बेहद प्रभावित होता है, परिणामस्वरूप शरीर में अनेक परिवर्तन होने लगते हैं. हम जानते हैं की आहार में जो भी कार्बोहाइड्रेट्स लिए जाते हैं, वे पाचन के बाद सरल शर्कराओं जैसे ग्लूकोज़, गेलेक्टोज़ व् फ्रक्टोज़ में बदल जाते हैं. अवशोषण के पश्चात गेलेक्टोज़ व् फ्रक्टोज़ का परिवर्तन भी ग्लूकोज़ में हो जाता है. प्राप्त ग्लूकोज़ शरीर में तीन प्रकार से उपयोगी होता है.
(१) तुरंत ऊर्जा प्राप्त करने के लिए. (२) अतिरिक्त मात्रा में शेष रहने पर ग्लायकोजन में बदल कर यकृत में जमा हो जाता है. (३) इसके बाद भी बचने वाला ग्लूकोज़ वसा में बदल कर संगृहीत हो जाता है जो आवश्यकता पड़ने पर पुनः ग्लूकोज़ में बदल कर ऊर्जा प्रदान करता है. डायबिटीज रोग में उपर्युक्त स्थितियों में भिन्नता भी देखि जाती है. इन्सुलिन कम बनने के कारण एक ओर ग्लूकोज़ का परिवर्तन ग्लायकोजन में नहीं हो पता है और दूसरी ओर ग्लूकोज़ की उपयोग क्षमता कम हो जाती है फलतः रक्त और मूत्र में ग्लूकोज़ की मात्रा बढ़ने लगती है. इस प्रकार मधुमेह (डायबिटीज) रोग में कार्बोहायड्रेट का चयापचय ठीक नहीं हो पाता अतः शरीर में प्रोटीन अधिक मात्रा में विघटित होने लगते हैं व् प्रोटीन से ग्लूकोज़ के निर्माण की मात्रा बढ़ जाती है. प्रोटीन अधिक टूटने से रक्त में नाइट्रोजन व् पोटेशियम की मात्रा बढ़ कर मूत्र में इनका उत्सर्जन बढ़ जाता है. इतना ही नहीं, शर्करा की बीमारी वसा के चयापचय को भी गड़बड़ा देती है. ग्लूकोज़ का उपयोग बाधित होने से वसा द्वारा ऊर्जा प्राप्त की जाती है. वसा के अधिक विघटन होने से , इनके अंतः उत्पाद, जो किटोनयुक्त पदार्थ होते हैं , अधिक मात्रा में बनते हैं. सामान्य स्थितियों में इन अनुपयोगी पदार्थों का ऑक्सीकरण, कार्बोनडायॉक्सीड व् पानी के रूप में हो जाता है किन्तु अधिक मात्रा में बनने पर इनका ऑक्सीकरण नहीं हो पाता व् कीटोसिस की स्थिति निर्मित होने लगती है.
जैसा की विदित ही है की डायबिटीज (मधुमेह) रोग एक बार हो जाने पर इससे छुटकारा पाना अत्यंत कठिन है. रक्त में शर्करा की मात्रा को केवल नियंत्रित कर, रोग के लक्षणों को और रोग की गंभीरता को काफी हद तक कम किया जा सकता है. यहाँ यह बताना आवश्यक है की डायबिटीज रोग की उपचार व् नियंत्रण में आहार की भूमिका अत्यंत मत्वपूर्ण है. आहार में ली जाने वाली कुल कैलोरी, कार्बोहायड्रेट, वसा व् प्रोटीन का संतुलन, रोगी का वज़न सामान्य बनाये रखते हुए उसे कार्यक्षम तो बनाता ही है, साथ ही अल्पशर्करा या अधिक शर्करा की स्थितियों को रोकते हुए जटिलताओं को कम करने में भी मददगार होता है.
रोगी के निर्धारण में सबसे ज्यादा ध्यान देने वाला तथ्य उसका वज़न है. यदि रोगी मोटा है तो कम कैलोरीयुक्त आहार, वज़न सामान्य होने तक ग्रहण करना चाहिए. प्रोटीन की मात्रा एक डेढ़ ग्राम प्रति किलोग्राम शारीरिक वज़न के, दी जानी चाहिए क्योंकि ये वसा के समान अधिक ऊर्जा प्रदान नहीं करते तथा रक्तशर्करा की मात्रा को भी बढ़ावा नहीं देते हैं. रोगी की ऊर्जा की आवश्यकता का ४०-६०% भाग कार्बोहैड्रेट द्वारा पूर्ण किया जाना चाहिए. इस आधार पर १७५-२५० ग्राम कार्बोहायड्रेट सामान्य वज़न के व्यक्ति को दिए जा सकते हैं लेकिन शर्करा का उपयोग नहीं के बराबर किया जाना चाहिए. ग्लूकोज़ के स्थान पर फ्रक्टोज़ का प्रयोग कुछ हद तक किया जा सकता है किन्तु अधिक मात्रा में नहीं . शेष कैलोरी की पूर्ती वसा के माध्यम से की जानी चाहिए. चिकनाईयुक्त ऐसे पदार्थों का चयन किया जाना चाहिए जिनमे बहुत संतृप्त वसीय अम्ल (poly unsaturated fatty acids ) अधिक मात्रा में हों. इनका सेवन रक्त में वसा की मात्रा कम करते हुए , ह्रदय रोग की संभावनाओं को भी घटाता है. चूँकि, विटामिन बी काम्प्लेक्स कार्बोहायड्रेट के चयापचय के लिए आवश्यक होते हैं , साथ ही ये नाड़ी ऊतकों को क्षतिग्रस्त होने से रोकते हैं अतः आहार में बी काम्प्लेक्स युक्त पदार्थों की पर्याप्त मात्रा ली जानी चाहिए. डायबिटीज रोग में यकृत के क्षतिग्रस्त होने की सम्भावना भी हो सकती है अतः विटामिन ए सम्पूरित किया जाना आवश्यक है ताकि इनके अतिरिक्त द्रव पदार्थ का पर्याप्त निष्कासन सुचारू रूप से हो सके व् शरीर का जल संतुलन भी बना रहे. इतनी बातों को ध्यान में रखकर रोगी को उचित आहार-विहार करना चाहिए.
डायबिटीज के इलाज के लिए घरेलु आयुर्वेदिक नुस्खा ( Ayurveda home remedy for the treatment of diabetes in hindi ) - नीम के पत्ते १०० ग्राम, गिलोय ५० ग्राम, अजवाइन २५ ग्राम, सौंफ २५ ग्राम और चिरायता १५ ग्राम. सब द्रव्यों को २-३ दिन धुप में अच्छी तरह सुखा कर कूट पीस कर बारीक चूर्ण कर लें. प्रातः खाली पेट एक चम्मच चूर्ण ठन्डे पानी के साथ लेने से रक्त शर्करा नियंत्रण में यानी सामान्य बानी रहती है.