आज के दौर में अनुचित जीवनशैली और बढ़ते वातावरणीय प्रदुषण से उत्पन्न होने वाले रोगों में से एक है दमा यानी श्वास रोग (Asthma ). दमा प्रायः असाध्य माने जाने वाला रोग है शायद इसलिए ऐसा कहा जाता है की दमा दम के साथ ही जाता है. जो भी हो, दमा कष्ट साध्य तो है ही. Biovatica .Com इस आर्टिकल के माध्यम से दमा रोग के कारण और आयुर्वेदिक औषधियों द्वारा इसके निवारण सम्बन्धी उपयोगी विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं.
दमा रोग होने के कई कारण होते हैं किन्तु इस रोग के विषय में आवश्यक और हितकारी जानकारी प्राप्त करने के पहले हमें श्वसन प्रणाली और इससे सम्बंधित अंगों के विषय में संक्षिप्त चर्चा करना आवश्यक लग रहा है. तो लीजिये पहले उस तंत्र से सम्बंधित मूलभूत बातें समझ लें जिससे सम्बंधित यह रोग है फिर इसके कारण, लक्षण और निवारण पर बात करेंगे.
हमारे शरीर क़ो न सिर्फ स्वस्थ रखने में ही, बल्कि जीवित रखने में भी श्वास का निरंतर चलते रहना अनिवार्य है क्यूंकि जीवित शरीर के लिए आवश्यक वायु, जल और भोजन में से सबसे महत्वपूर्ण वायु ही है. कुछ समय प्राणवायु न मिले तो जीवन मृत्यु में बदल सकता है. शायद इसलिए प्रकृति ने न सिर्फ श्वसन क्रिया क़ो अपने हाथ में रखा है बल्कि प्रचुर मात्रा में वायु बिना किसी कीमत के उपलब्ध करवाई है. दमा के रोगी क़ो श्वास लेने में कठिनाई होती है और उसकी बेचैनी और पीड़ा किसी स्वस्थ व्यक्ति क़ो तब समझ में आती है जब कोई अन्य व्यक्ति बलपूर्वक उसके नाक व् मुंह बंद करके उसे सांस न लेने दे.
सांस का निरंतर चलते रहना अनिवार्य रूप से इसलिए आवश्यक है की शरीर क़ो प्रतिफल प्राणवायु की आवश्यकता रहती है और अंदर की विषाक्त वायु कार्बोनडाइऑक्सइड का बाहर निकलते रहना अनिवार्य है. दरअसल हमारे द्वारा ग्रहण किये गए आहार का पाचन तंत्र में पाचन व् अवशोषण होकर जब यह कोशिकीय स्तर पर पहुँचता है तब वहां ऑक्सीजन की उपस्थिति में ऊर्जा का निर्माण होता है तथा आहारीय अणु पानी और कार्बनडायऑक्सीड में परिवर्तित हो जाता है. फेफड़ों से प्रत्येक कोशिका तथा ऑक्सीजन क़ो पहुँचाने तथा प्रत्येक कोशिका से फेफड़ों तक कार्बन डायऑक्सीड पहुंचाने का कार्य रक्त द्वारा होता है. अब इस कार्य में जब भी कमी होती है तभी हमारा शरीर विकार और रोग से ग्रस्त हो जाता है.
नासिका के मार्ग से प्रवेश करने वाली वायु स्वरयंत्र (Larynx ) से होती हुई सांस नाली (Trachea ) के मार्ग से फेफड़ों में पहुँचती है . छाती में पसलियों से घिरे हुए दाएं व् बाएं फेफड़ों को फुफ्फुस (Lung ) कहते हैं. सांस नली दो भागों में विभक्त होकर इन फेफड़ों से जुड़ती है जिन्हे ब्रोंकाइ (Bronch ) कहते हैं.आगे बढ़कर ये सांस नलिकाएं अनेक छोटी शाखाओं और प्रखाओं में विभक्त हो जाती हैं. अंत में वह अति सूक्ष्म स्थिति आ जाती है जिन्हे 'एल्विओलाई' (Alveoli ) कहते हैं और जहाँ रक्त व् वायु परस्पर आदान-प्रदान कर रक्त की शुद्धि करते हैं यानी रक्त प्राणवायु प्राप्त कर शुद्ध होता है और 'कार्बोनडाइऑक्सइड ' छोड़ता है जो सांस के साथ बाहर निकलती रहती है. दोनों फेफड़े एक झिल्ली से ढके रहते हैं जिसे 'प्लूरा' (Pleura ) कहते हैं. दाएं फेफड़े में तीन और बाएं फेफड़े में दो खंड होते हैं जिन्हे 'लोब' (Lobe ) कहते हैं. सांस लेने पर ये फेफड़े फूलते हैं और छोड़ने पर पिचक जाते हैं. इस प्रक्रिया में किसी भी कारण से विघ्न बाधा पड़ने पर सांस लेने में कष्ट होता है जिससे घबराहट, बेचैनी और दम घुटने जैसा मालुम देता है. गहरी सांस न ले पाने के कारण जल्दी-जल्दी सांस लेने के लिए विवश होना पड़ता है ताकि पर्याप्त मात्रा में प्राणवायु अंदर पहुँचती रहे.
दमा रोग ने आज महामारी का रूप धारण कर लिया है. बुजुर्ग हो या बच्चा , समस्या बढ़ती जा रही है. भविष्य में इस रोग के रोगियों की संख्या का अनुमान लगाना मुश्किल होगा क्यूंकि आने वाली पीढ़ी में अधिकाँश सांस रोगी अनुवांशिक होंगे. इसका दूसरा कारण है निरंतर बढ़ता हुआ आहारीय और वातावरणीय प्रदुषण तथा तीसरा कारण है निरंतर कम तथा कमज़ोर होती जा रही रोग प्रतिरोधक क्षमता (immunity ). इतना ही नहीं इसके साथ एक और अहम् कारण जो जुड़ता जा रहा है वह है - विषय विशेषज्ञ वैद्यों की कमी, औषधियों में गुणवत्ता की कमी तथा चिकित्सा जगत में गहन अध्ययन व् अनुसंधान की प्रगति के बजाये पारम्परिक लब्ध ज्ञान का विलुप्त होते जाना.
आयुर्वेद की दृष्टि से देखें तो सांस रोग, कफ एवं वायु की विकृति से उत्पन्न होता है. मूलतः उत्पत्ति पाचन संस्थान से होती है. उचित पाचन न होने से रस का ठीक पाचन नहीं होता है और कफ विकृत होकर वायु के मार्ग को अवरुद्ध कर ह्रदय, फुफ्फुस को विकृत कर देता है. इससे पुनः वायु और कफ की वृद्धि हो जाती है जिससे सांस मार्ग एवं फुफ्फुस के वायु कोष्ठ कुछ संकुचित हो जाते हैं और उनमे कफ भर जाता है. परिणामस्वरूप वायु के आने जाने में रुकावट होती है और फेफड़ों में वायु पूर्ण रूप से प्रवेश नहीं कर पाती जिससे सांस रोग उत्पन्न हो जाता है. कहने का सार यह है की जब वायु, कुपित होकर कफ के साथ होकर सांस, अन्न व् जल के मार्गों को अवरुद्ध कर देता है और कफ के कारण अपनी स्वाभाविक गति से आ जा नहीं पाता तब ऐसी स्थिति को दमा होना कहते हैं.
सामान्यतः वायु कोशों व् सांस नलिकाओं में सदैव कुछ तरल पदार्थ का स्त्राव होता रहता है जो फेफड़ों से बाहर जाती सांस के साथ वाष्प के रूप में निकल जाता है. जब कभी फुफ्फुस या नलिकाओं में अधिरक्तता (congestion ) , शोथ (inflammation ), या शोष (irritation ) आदि कारणों से यह स्त्राव अधिक मात्रा में होने लगता है तब मात्रानुसार , कारण और सम्बन्ध के अनुरूप कम या ज्यादा , तरल या गाढ़ा कफ निकलने लगता है . फुफ्फुस और सांस नलिकाओं में कफ एकत्रित होने से क्षोभ और श्वास उत्पन्न होते हैं तथा वायु के लिए स्थान की कमी से प्रतिक्रिया स्वरूप प्राण और उड़ान वायु का प्रकोप होने से खांसी और श्वास उत्पन्न होते हैं. खांसी के साथ कफ का निष्काशन आसानी से नहीं होता इसलिए सांस की तीव्रता बढ़ जाती है. यानी पहले कफ दूषित होता है और बाद में वात दूषित होता है जो फुफ्फुस में व्याप्त होकर श्वास को उत्पन्न करता है. श्वास क्रिया में बाधा होने से ऑक्सीजन की कमी होने से सभी धातुएं दूषित होती हैं. इसका पूरे शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ता है और श्वास, सांस, खांसी के साथ साथ बेचैनी, विविध शूल, भरम, मोह आदि अनेक लक्षण उत्पन्न होते हैं. हालांकि दमा रोग के पूर्व रूप-लक्षण के रूप में पहले छाती में भारीपन होना, सांस लेने में तकलीफ होना, छाती में शूल व् पीड़ा होना, मुंह का स्वाद खराब होना, अफारा व् पेट का ख़राब होना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं.
१) अनुवांशिकता (Heredity ) :- जिन लोगों के परिवार में माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि किसी को दमा रोग रहा हो उन्हें इस रोग के होने की संभावना अन्य लोगों की तुलना में अधिक रहती है.
२) प्रदुषण (Pollution ) - आज के समय में वायु प्रदुषण बहुत अधिक बढ़ता जा रहा है. विभिन्न प्रकार की रासायनिक गैस, धुंआ, वाहनों व् कल कारखानों से निकलने वाले रसायन ये सब श्वसन तंत्र के माध्यम से ही शरीर में प्रवेश कर रहे हैं. इसलिए बड़े शहरों में दमे के रोगियों की संख्या में बहुत इजाफा हुआ है.
३) आहार (Diet ) विदाही, मिर्ची या जलन पैदा करने वाले, भारी तथा कब्ज़ पैदा करने वाले पदार्थ जैसे टेल हुए मैदे के बने पदार्थ; अति शीत प्रकृति के पदार्थ जैसे फ्रिज का पानी, कोल्ड-ड्रिंक्स, आइस-क्रीम आदि; खट्टे पदार्थ जैसे दही अथवा देश, काल, प्रकृति विरुद्ध भोजन करना तथा अजीर्ण की स्थिति आदि आहार सम्बन्धी कारण होते है.
४) विहार (Lifestyle ) - सीलन, नमीयुक्त, मलिन बस्ती में निवास होना; धुल, धुआं, तीव्र वायु का सेवन, अत्यधिक शर्म करना, मलमूत्र आदि अधारणीय वेगों को रोकना; वात प्रकृति के व्यक्ति का अधिक उपवास करना, कफ प्रकृति के व्यक्ति का ठन्डे मौसम में सर्दी, वर्षा एवं पूर्वी हवाओं का सेवन करना आदि विहार सम्बन्धी कारण होते है.
५) अन्य (Miscellaneous ) - ह्रदय, गुर्दे व् यकृत के रोग, आंतरिक ज्वर, राजयक्षमा, सारकॉइडोसिस आदि रोग एवं खदानों व् कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों को होने वाले फेफड़ों के रोग (pneumoconiosos ) आदि से भी सांस रोग होने की संभावना बढ़ती है. कुछ औषधियों के दुष्प्रभाव स्वरुप भी सांस रोग उत्पन्न हो सकता है.
(१) महा श्वास - इसका रोगी, वायु की उर्ध्व मुखी गति हो जाने से जोरों की आवाज के साथ कष्ट के साथ सांस खींचता है . वायु की गति रुक जाने से उसका ज्ञान नष्ट हो जाता है, नेत्र व् मुखाकृति विकृत हो जाते हैं तथा मल-मूत्र के वेग नहीं आते . सांस की आवाज़ दूर तक सुनाई देती है.
(२) (उर्ध्व श्वास) - इसके रोगी की सांस नलिकाओं का मुख कफ से आवृत रहता है. स्त्रोतों में वायु कुपित होकर कष्ट पहुँचता है. उर्ध्व श्वास का रोगी ऊपर की ओर श्वास देर तक छोड़ता है किन्तु वह अंदर की ओर उतनी देर तक नहीं खिंच पाता. दृष्टि ऊपर रहती है और वह ऊपर ऊपर ही वस्तुओं को देखता है. नेत्रों में घबराहट रहती है, बेचैनी रहती है. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसे stertorous respiration कहते हैं.
(३) छिन्न श्वास - जब रोगी अपनी पूरी ताकत लगाकर भी रुक रुक कर सांस ले पाता है. इसके अलावा पसीना आना, बेहोशी आना, दाह, आँख का लाल होना, आँख में पानी आना, शरीर क्षीण होना व् संधियां शिथिल होना आदि लक्षण होते हैं. आधुनिक चिकित्सा पद्धति में इसे cheyne stokes respiration कहते हैं.
(४) - तमक श्वास - जब प्राण -वह स्त्रोतों में अवरोध उत्पन्न हो जाता है, गर्दन तथा सर में जकडाहट उत्पन्न होती है और कफ की वृद्धि होने से सर्दी-जुकाम (पीनस ) उत्पन्न होते हैं तथा कफ से रुकी वायु गले में घरघराहट उत्पन्न करती है. सांस का वेग बढ़ जाता है तथा बार-बार खांसी आती है और खांसते खांसते कभी कभी बेहोशी भी आ जाती है. कफ निकलते समय रोगी को बड़ी पीड़ा होती है हालाँकि कफ निकल जाने के बाद रोगी को क्षण भर के लिए आराम मालुम देता है. बोलने में कठिनाई महसूस देती है. रोगी को सोने की इच्छा होती है लेकिन नींद नहीं आती और लेटने पर पसलियों में दर्द होता है इसलिए रोगी बैठा ही रहता है. आँखे चढ़ी रहती है तथा माथे पर पसीना रहता है, मुंह सूखता रहता है. वर्षा, बादल, शीतल वातावरण तथा कफवर्धक आहार-विहार से सांस की वृद्धि हो जाती है. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसे Bronchial Asthma कहते हैं.
(५) - प्रातमक श्वास - जब तमक श्वास के लक्षणों के साथ रोगी में ज्वर और मूर्छा भी हो तो उसे प्रातमक श्वास कहा जाता है.
(६) संतमक श्वास - जो श्वास उदारवत रोग के कारण, धूल, धुआं या अन्य एलर्जी जन्य कारणों से , अजीर्ण, शरीर के भीग जाने से , मलमूत्र के वेग को रोकने से बढ़ता है तथा शीतल आहार-विहार से शांत होता है. जिसका रोगी 'अन्धकार में दबता सा' अनुभव करता हो तो उसे 'संतमक श्वास' कहा जाता है.
(७) क्षुद्र श्वास - रुक्ष आहार-विहार से और अधिक परिश्रम करने से अलप प्रकुपित वायु श्वास नलिकाओं में बढ़ कर 'क्षुद्र श्वास ' उत्पन्न करता है. क्षुद्र श्वास में, चूँकि इसका वेग प्रबल नहीं होता, न तो शरीर के अन्य अंग प्रभावित होते हैं और न ही शरीर की क्रियाएं नष्ट होती है.
आयुर्वेद में ऐसे कई योग हैं जो केवल दमा रोग को नियंत्रित ही नहीं करते बल्कि कई बार इस रोग से मुक्ति भी दिला देते हैं. ऐसे ही कुछ योगों का वर्णन हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे है. :-
Ayurveda has several natural remedies for Dama, Asthma treatment which not only control and provide relief from asthma , but even completely treat and cure the disease of Dama, Asthma. Here we are listing some of these ayurvedic remedies for Dama, Asthma :-
(१) पहला प्रयोग - अडूसा, हल्दी, धनिया, गिलोय, भारंगी, पिप्पली, सौंठ, कंटकारी- इन सभी द्रव्यों को समान मात्रा में लेकर यवकूट कर के रख लें.
इसकी १० ग्राम मात्रा २०० मिली पानी में धीमी आंच पर पकाएं और जब ५० मिली शेष रह जाए तब इसे ठंडा करके १ चम्मच शहद मिलाकर सुबह भूखे पेट तथा रात्रि में सोते समय सेवन करें.
(२) दूसरा प्रयोग - दशमूल , कचूर , रास्ना, पिप्पली, सौंठ, पुष्करमूल, काँकड़ासिंघी, भुई आंवला, भारंगी, गिलोय, नागर मोथा - इन सभी द्रव्यों को समभाग लेकर यवकूट कर रख लें.
उपरोक्त वर्णित विधि अनुसार इसका काढ़ा बनाकर सुबह-शाम लें.
(3) तीसरा प्रयोग - काकड़ा सिंघी, सौंठ, काली मिर्च, पिप्पली, हरड़, बहेड़ा आंवला, छोटी कटेरी, भारंगी, पुष्कर मूल तथा पाँचों नमक - सभी द्रव्य समभाग लेकर कूट पीस कर बारीक कपड़छन चूर्ण बना लें. इस चूर्ण की ५ से ६ ग्राम मात्रा सुबह भूखे पेट शहद या गर्म पानी के साथ लें तथा इसी तरह एक खुराक रात को सोते समय लें.
(४) शास्त्रोक्त प्रयोग - सितोपलादि चूर्ण १०० ग्राम, विशाम भस्म (श्रृंग भस्म) ५ ग्राम, श्वास कुठार रस ५ ग्राम, श्वास चिंतामणि रस ३ ग्राम, अभ्रक भस्म ५ ग्राम तथा चौंसठ प्रहरी पिप्पली ५ ग्राम - सभी को अच्छे से खरल करके बराबर-बराबर मात्रा की ६० पुड़िया बना लें. इसकी एक पुड़िया में एक चौथाई चम्मच हल्दी पाउडर, एक चम्मच पान व् अदरक का रस, तथा एक चम्मच शहद मिलाकर सुबह भूखे पेट व् इसी तरह रात में सोते समय लें. दोनों वक़्त के भोजन उपरान्त आधा कप पानी में ३ चम्मच वासारिष्ट तथा एक चम्मच कनकासव मिला कर लें.छाती पर महानारायण तेल या अन्य वात नाशक तेल की मालिश करें व् गर्म सेंक करें .
(5) (५) च्यवनप्राश, चित्रक हरीतकी अवलेह, वासावलेह आदि का प्रयोग श्वसन सम्बन्धी रोगों में लाभ करता है. सांस रोग के साथ अतिसार , रक्तपित्त, डाह, दौर्बल्य आदि उपद्रव हो तो उसकी चिकित्सा मधुर, स्निग्ध, शीतल द्रव्यों के साथ करनी चाहिए.
(6) दमा रोग में पथ्य आहार - वमन, विरेचन, स्वेदन , वक्षस्थल पर स्निग्ध स्वेदन , वात नाशक तेल की मालिश, शास्त्रीय धूम्रपान, पुराने चावल, गेहूं, जौ बाजरा, बकरी का दूध, शहद, गौमूत्र , लौकी, तोरई, परवल, मुंग की दाल, लहसुन, गर्म मसाले, गर्म पानी, योग प्राणायाम, शुद्ध हवा में घूमना आदि पथ्य है.
दमा रोग में अपथ्य आहार - ठंडी चीजें, फ्रिज की चीजें, दही, दूध, घी, ताली हुई, नमकीन, पचने में भारी तथा कफ एवं वातवर्धक आहार; वेगों को रोकना, अतिश्रम करना, अधिक भार उठाना, मैथुन, धूल, धुआं, अतिशीत व् दूषित जल, आलू आदि कंद, उड़द की दाल, ऐसी , कूलर का प्रयोग निषेध है.